बहुत देर से
धूप ही धूप थी
दूर तक
कोई दरख्त नहीं
जिसकी छाँव तले मै
आ जाऊं !
बहुत दिनों से
कंठ सूखा था
दिनों तक कोई
लहर नहीं
जिसे जी भर मै
पी जाऊं !
कई जेठों से
स्वेद की कितनी बूंदें
माथे छलछलाती थीं
कब शीतल पुरवाई में
समा जाऊं !
आ जाओ
बस आ ही जाओ
मेरी जिन्दगी
छाँव, तृप्ति और श्वास
मेरी तुम !
-जीतेन्द्र 'गीत'
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
बहुत ही सुन्दर! इस सुन्दर भावपूर्ण रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं!
jaise kuch baat adhuri rah gayi hai
koshish ke liye daad sweekar kare bhai
Magar na jane kyu mujhe kuch kami mehsus ho rahi hai
प्रेम की व्याकुलता को बहुत ही सुन्दर ढंग से शब्द दिए आपने ! बहुत बढ़िया !
यू शिद्दत से बुलानेकी वजह वों पूंछे तो एक बात भाई कहना ही चाहिए -
"वजह पूछोगे , तो कभी , कुछ न बता पाऊँगा
कहा न ! अच्छे लगते हो , तो बस लगते हो .. !"
बहुत खूबसूरत लेखन -डॉ अजय
बहुत खुबसूरत .....बधाई
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