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आकाश में काली घटा छाई,
आज फिर तुम्हारी याद आई।
लगा तुमने जैसे मुझे छू लिया,
जब चली झूमकर ये पुरवाई।
मन्द -मन्द चली शीतल पवन,
मन में जल उठी विरह-अगन।
मन को शीतल करने के लिए
वर्षा में भिगोया मैंने अपना तन।
नन्हीं-नन्हीं -सी बूँदें,ये जल की,
और मेरे विरह की ये जलन बड़ी।
अब तो आकर मुझे लगा लो अंग,
बस यही सोच रही  मैं खड़ी -खड़ी।
जाने कब साकार होगी ये कल्पना,
कब होगा पूरा मेरा सुन्दर सपना?  
है जो मुझसे अभी तक  पराया-सा,
जाने कब तक होगा वो मेरा अपना?

हे प्रिय! कब आओगे तुम मेरे देश,
धारण कर न जाने कौन -सा वेश?
करते जा रहे हो मुझे स्वयं से दूर,
कब दोगे तुम मुझे हृदय में प्रवेश?
कब समाप्त होगी यह मेरी प्रतीक्षा,
कब तक पूरी होगी ये मेरी इच्छा?
कब तक बसे रहोगे मेरे मन में,
कब तक लोगे मेरी प्रेम -परीक्षा?
देखो,प्यासी धरती को भिगो दिया
और अम्बर ने शीतल कर दिया।
मेरे हृदय की विरहाग्नि को,क्या
प्रेम -जल से दूर करेगा मेरा पिया?
 जबसे रिमझिम सावन बरस रहा,
तुम्हारे लिए ये मेरा मन तरस रहा।
तुम्हारी स्मृतियों से व्याकुल हृदय,
और नेत्रों से अविरल जल बरस रहा।
अब तो आ जाओ ओ मेरे मनभावन,
इससे पहले कि बीते मनोरम सावन।
मेरे रोम -रोम को अब पुलकित कर दो, 
छूकर प्रेम से,ये मेरा सुवासित तन-मन।
आकर मुझ पर अब प्रेम की वर्षा कर दो,
मेरे सारे सपनों को बस तुम पूरा कर दो।
इन प्यासे नेत्रों को अपने दर्शन देकर तुम,
अब मेरी समस्त पीड़ा और तापों को हर लो।
'सावित्री राठौर '
[मौलिक एवं अप्रकाशित]

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Comment by Savitri Rathore on August 2, 2013 at 7:08pm

आदरणीय लक्ष्मनप्रसाद जी ,नमस्कार !
  आपका बहुत -बहुत धन्यवाद !

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 2, 2013 at 10:40am

आकर मुझ पर अब प्रेम की वर्षा कर दो,
मेरे सारे सपनों को बस तुम पूरा कर दो।
इन प्यासे नेत्रों को अपने दर्शन देकर तुम,
अब मेरी समस्त पीड़ा और तापों को हर लो।-----प्रभु जरूर सुनता है | सुन्दर भाव प्रतुती के लिय बधाई 

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