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राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-४२ (ज़िंदगी खुद अपनी पैमाइश में छोटी होती गई

वक़्त फिर बदल गया. कुछ नया तो नहीं, कुछ पुराना भी न रहा. ज़िंदगी खुद अपनी पैमाइश में छोटी होती गई. यादों के काफिले सच की राह को छोटा कर गए. मंजिल की धुन में मौजूदगी का ख़याल न रहा. मौजूदा में डूबे तो मंजिल को भूल गए. जो मिला उसमें मुहब्बत न देख पाए और जो न मिला, उसे मुहब्बत की लुटी दुनिया समझके रोते रहे. सच और परछाइयों की कशमकश में दोनों ही नुक्सानज़दा हुए क्योंकि सच परछाइयों का अक्स है और परछाइयां सच की रूमानियत- और ज़िंदगी दोनों के तवाज़ुन (संतुलन) पे जीती है. 

क्यूँ आज भी ये दिल ज़िंदगी के ठुकराए माज़ी (अतीत) के चंद लम्हों की सम्त (तरफ) रवां हैं? क्यूँ आज भी ज़िंदगी में इक कमी सी है, क्यूँ आज भी आईने के बरअक्स (सामने) चश्मों के शीशों के पीछे किसी और शख्स का अक्स (चेहरा) नज़र आता है? 

राज़! ज़िंदगी तो खामोश है, तुम ही बोलो, हम ये किससे पूछें? 

© राज़ नवादवी, भोपाल
रविवार २७/०१/२०१३ प्रातःकाल ०८.१६

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Comment by राज़ नवादवी on August 7, 2013 at 11:20am

आदरणीय राणा प्राताप सिंह साहेब, आपने सच ही फरमाया है, "लम्हे रेत  की मानिंद हाथ से फिसलते जाते हैं और हम चाह कर भी उन्हें मुट्ठी में कैद नहीं कर पाते". बक़ौल नीरज- 'कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे".

आपकी यह बात भी सौ फीसदी सच है कि ज़िंदगी को हर हाल बानफ़स रखना होता है, बेटे के खाने को गरम रखने के लिए इक मां का रसोई के चूल्हे की आग को जलाए रखने की तरह.

आपका दिल से शुक्रिया जो आपने मेरी रचना को पढ़ा, अपनी तजवीजें दीं और पसंद किया. सादर.  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 6, 2013 at 8:43pm

राज़! ज़िंदगी तो खामोश है, तुम ही बोलो, हम ये किससे पूछें? 

आदरणीय राज साहब 

कई दफे लम्हे रेत  की मानिंद हाथ से फिसलते जाते हैं और हम चाह कर भी उन्हें मुट्ठी में कैद नहीं कर पाते हैं, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि हम जिंदगी जीना ही छोड़ दें ..यक़ीनन ज़िन्दगी में किसी की कमी हमेशा ही माजी की तरफ रुख करने को मज़बूर करती है इसीलिए आपकी यह पंक्तियाँ ज्यादा प्रासंगिक हो जाती हैं 

 "सच परछाइयों का अक्स है और परछाइयां सच की रूमानियत- और ज़िंदगी दोनों के तवाज़ुन (संतुलन) पे जीती है. "

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