ग़ज़ल –
गिरते गिरते संभलता रहा रात भर ,
मैं था टूटा बिखरता रहा रात भर |
उसके रुखसार का चाँद दामन में था ,
चांदनी में निखरता रहा रात भर |
मुझको मंजिल नहीं बस सफ़र चाहिए ,
दो कदम चल ठहरता रहा रात भर |
गो कि पलकें उठीं आईना हो गयीं ,
आईनों में संवरता रहा रात भर |
था हकीकत या सपना यही सोचकर ,
अपनी ऊँगली कुतरता रहा रात भर |
अर्श तक मैं चढ़ा उंगलियाँ थामकर ,
सांस रोके उतरता रहा रात भर |
भोर होने ने मुझमें यकीं भर दिया ,
हादसों से गुज़रता रहा रात भर |
शेर तारे ग़ज़ल चांदनी रात थी ,
मन का शायर मचलता रहा रात भर |
- अभिनव अरुण
(पुरानी डायरी से - १८०८२०१३ )
* सर्वथा मौलिक एवं अप्रकाशित - अरुण
Comment
ओबीओ मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार.. ?!! ... ;-)))))
हाँ, यहाँ से ठुक-पिट कर वहीं.. . शायद.. .
:-)))))))))
प्रणाम श्री ..बड़े कारखाने में भेजा है ..शायद खारिज हो जाए या सुधर जाए ..शुरुआत का प्रोडक्शन है ..पर ये एक्सक्यूज नहीं मानता हूँ ..मताए कूचा ओ बाज़ार में सब ठीक ठाक ठुका-पिता होना ही चाहिए ..वज़न लिखने वाली बात से सहमत हूँ ..अमल होगा !! सादर प्रणाम के साथ - अभिनव
पेटी की चाभी नहीं हेरायी.. आय-हाय ! यह कम बडी बात नहीं है. :-))))
काफ़िया निर्धारण को पुनः देख लीजियेगा, भाईजी.
ग़ज़ल के अशार सुभानअल्लाह ! पलकों को खूब आईना बनाया है. वाह वाह.. .
इस मंच पर हम मिसरों के वज़्न लिख देने की परंपरा विकसित करें. यथा, २१२२१२२१२२१२
शुभ-शुभ
ग़ज़ल आपको पसंद आई बहुत शुक्रिया आदरणीया मंजरी जी , आपकी सराहना मेरे लिए महत्वपूर्ण है !!
प्यारी सी ओस से नहाई हुई सी गज़ल . बधाईयां
गो कि पलकें उठीं आईना हो गयीं ,
आईनों में संवरता रहा रात भर |
शेर तारे ग़ज़ल चांदनी रात थी ,
मन का शायर मचलता रहा रात भर |
परम आदरणीय आपके आशीष पाकर धन्य हुआ बहुत आभार आप्प्का !!
बहुत ही खूबसूरत अश’आर हैं।
बधाई, आदरणीय अभिनव जी।
सादर,
विजय निकोर
आ. डॉ प्राची जी ! इधर बारह -पंद्रह साल से लिखी ग़ज़लों की मरम्मत का काम चल रहा है .. कुछ पढाई के दिनों की शुरुआती ग़ज़लें हैं ,, उन्ही में से एक - दो इधर पोस्ट की हैं ... आपको पसंद आई शेयर करना सार्थक रहा | ...दौरे हाज़िर ने ऐसे मंज़र दिखाए की बस अब सियासी सामाजिक विषयों पर लिखना ज्यादा ज़रूरी और समीचीन प्रतीत होता है |
शुक्रिया आ. शुभ्रा जी !
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