साँझ ढली तो आसमान से धीरे-धीरे
रात उतर आई चुपके-चुपके डग भरती
स्याह रंग से भरती कण-कण वह यह धरती
शांत हुआ माहौल और सब हलचल धीरे
कल-कल करती धारा का स्वर नदिया तीरे
वरना तो, सब कुछ शांत, भयावह रूप धरे
जीव सभी चुप हैं सहमे, दुबके और डरे
कुछ अनजानी आवाज़ें खामोशी चीरे
मन सहमा जब भीतर यह काली पैठ हुई
लोभ और मोह कितने उसके संग उपजे
भ्रम के झंझावातों में पग पल-पल बहके
साथ सभी छूटे, आभा सारी भाग गई
सहसा कुछ किरनें फूटीं, इक आशा जागी
जग की, मन की परतों से सब कालिख भागी
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको! |
आदरणीय रमेश जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया मीना जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय बृजेश भाई जी बेहद सशक्त अभिव्यक्ति बेहद सुन्दर चित्रण हृदयस्पर्शी भाव भरे हैं आपने इस रचना इस हेतु मेरी ढेरों बधाई स्वीकारें.
भाई बृजेश जी, आपकी यह रचना आपके परिचित अंदाज़ से कुछ हट कर है. सुंदर है, स्पष्ट है. साधुवाद.
गंभीर चिंतन लिये प्राकृतिक चित्रण से सरोबर यह आपकी रचना निराली है । नीरजजी आपको बधाई
सहसा कुछ किरनें फूटीं, इक आशा जागी
जग की, मन की परतों से सब कालिख भागी........... बहुत सुन्दर, बधाई आप को
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