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!!! कुण्डलियां !!!

पत्थर जन मन धन चुने, जाति-पाति के संग।
इनके माथे पर लिखा, कामी-मत्सर-जंग।।
कामी - मत्सर - जंग, द्वेष का भाव बढ़ाते।
ढाई  आखर  छोड़,  धर्म  पर  रार  मचाते।।
निश-दिन करे कुकर्म, आड़ हो जन्तर-मन्तर।
बने  स्वयंभू  राम,  कर्म  का  डूबे  पत्थर।।

के0पी0सत्यम/मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 2, 2013 at 7:00pm

आ0 सौरभ सर जी,  आपके अपार स्नेह, आशीष और सुझाव के लिए आपका हृदयतल से बहुत-बहुत आभार।  सर जी,  मैं अवश्य ही इस पर कार्य करूंगा।  सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 1, 2013 at 10:48pm

कामी मत्सर जंग..   एक साथ ये कैसे आ सकते हैं ..  कोई विशेषण है कोई संज्ञा ..

थोड़ी स्पष्टता आवश्यक है.

शुभेच्छाएँ

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 31, 2013 at 8:57am

आ0 रामशिरोमणि भाई जी,  सादर प्रणाम!  आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका हृदयतल से आभार।  सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 31, 2013 at 8:56am

आ0 अन्नपूर्ण जी,  सादर प्रणाम!  आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका हृदयतल से आभार।  सादर,

Comment by ram shiromani pathak on August 30, 2013 at 10:06pm

आदरणीय भाई केवल जी  बहुत ही सुन्दर कुंडली रची है आपने  /////

हार्दिक बधाई आपको //सादर

Comment by annapurna bajpai on August 30, 2013 at 9:36pm
वाह ! आ0 केवल भाई जी बहुत ही बढ़िया कुण्डलिया रचे है । बधाई आपको ।
Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 30, 2013 at 8:45pm

आ0 भण्डारी भाई जी,  आपके अपार स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार।  सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 30, 2013 at 8:43pm

आ0 जुनेजा भाई जी,  आपके स्नेह, उत्साहवर्धन और सुझाव हेतु आपका हार्दिक आभार।   बस यूं ही स्नेह बनाये रखिए।  सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 30, 2013 at 8:37pm

आ0 राजेश भाई जी,  आपके स्नेह, उत्साहवर्धन और अपेक्षित प्रश्न हेतु आपका हार्दिक आभार।  ‘जंग‘ का तात्पर्य मैंने ’दंगा’ और ’आतंक’ से लगाया है।  बस यूं ही स्नेह बनाये रखिए।  सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 30, 2013 at 8:26pm

आ0 सुजान भाई जी,  आपके स्नेह, उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार।   सादर,

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