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राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-६७ (तरुणावस्था-१४): किताबों के संग

(आज से करीब ३१ साल पहले)

आज का दिन किताबों के साथ बीत गया. इतनी जल्दी मानो मेरी गति घड़ी के काँटों से भी तीव्रतर थी. शरतचंद्र की उपन्यासिका ‘बिराज बहु’ को आद्योपांत पढ़ने के दौरान मैं समय की हिमावर्त सडकों पे असहाय फिसलता गया. इस कृति ने मेरे मर्म को छू लिया था.

 

बिराजबहू उपन्यास की मुख्य पात्रा है जिसे लेखक ने अपनी जीवंत लेखनी के माध्यम से अत्यंत सशक्त और स्वाभाविक ढांचे में ढाला है. पात्रों के अंतर्संघर्ष में मुझे अपने ही समाज की असंगतियों, मानवीय भावनाओं, देवोपम त्याग, इत्यादि का अहसास हुआ.

 

आद्योपांत एवं सांगोपांग पढ़ने के पश्चात विमूढ़ित मन के समक्ष अंततः सोचने को कुछ भी नहीं बचा सिवाए इसके कि हमें भी मरना है. मगर मुझे लगा कि बिराज सी निष्कलंक मृत्यु के लिए निष्कृति आवश्यक है. नीलाम्बर जैसे साधुजन आज हममें से शायद ही हैं. मोहिनी सी देवरानी भी, जो वस्तुतः देवों की रानी है, वर्तमान पारिवारिक पृष्ठभूमियों में कहाँ परिलक्षित होती है?

 

किन्तु, अंत अंत में नीलाम्बर का बिराजबहु को मारना, बिराज का गृह त्याग, सुन्दरी के साथ राजेन्द्र के बजरे तक बिराज का जाना, और फिर बिराज सी स्वाभिमानिनी नारी का दर-दर ठोकरें खा कर भिक्षावृति को अपनाना एवं मरणासन्न स्थिति में पुनर्मिलन- कहानी में ये सब बातें बड़ी अस्वाभाविक लगीं. इससे कहानी के सहज प्रवाह के साथ साथ मेरे मन को भी ठेस लगी.

 

अच्छा होता यदि कथान्त गलतफहमियों के एहसास का प्रतिरोपण पात्रों में कर पाता. बिराज बेचारी अपुरष्कृत ही परलोक सिधार गई और कहानी का अंत अपने मूल ध्येय से हटकर बिराज के सतीत्व की निष्कलुषता को अभिप्रमाणित करने में ही सिमट गया. पुंटी और उसके ससुराल वाले जो सच्चाई में कथा को आगे बढ़ाने के कारण थे, अंत अंत तक अछूते ही छूट गए.  

 

© राज़ नवादवी

गुरुवार, ०८/०४/१९८२,

टाटानगर (जमशेदपुर), बिहार

'मेरी मौलिक एवं अप्रकाशित रचना' 

  

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