(आज से करीब ३१ साल पहले)
किसी उदास दिन, किसी खामोश शाम, और किसी नीरव रात सा ये सफ़र मुझे बेचैन कर गया. रेल सरपट भागी जा रही थी और नज़ारे, खेत और खलिहान पीछे. दोपहर की वीरानगी में स्त्री-पुरुषों के साथ बच्चों को खेतों पे काम करते देख मन अजीब पीड़ा से भरता जा रहा था. गाड़ी भागती जा रही थी मगर बंजर दिखते खेत और पठारी एवं असमतल भूमि का कहीं अंत नहीं दिख रहा था. बैल हल का जुआ कंधे पे थामे, किसान अरउआ हाथ में पकड़े, औरतें और बालाएं हाथ में हंसिया लिए झुकी कमर, खामोशी, और निस्तब्धता के साथ अपने सुर-लय मिलाते अपने-अपने कामों में लगे थे.
झाड़ी-झुरमटों में मवेशियों का विचरना, दूर, सूनी, गर्द से सराबोर पगडंडियों पे किसी अकेले राही का बढ़ते जाना, विस्तृत नंगे मैदान के बीच किसी पेड़ की छाया तले लोगों का सुस्ताना, छोटे से वीरान स्टेशन पर ट्रेन का रुक जाना, जामुन, दही, या अन्य कोई चीज़ बेचने के लिए उद्यत पर नहीं बिक पाने से हल्की मायूसी से आवृत छोटे-छोटे बच्चे एवं तरुणियों के उदास चेहरे...ये सब क्या है? समझ में नहीं आता.
ट्रेन रात भर भागती ही रही, रुकी नहीं. भोर हो आई. पूरब से सूरज सुबह की ललाई लिए उदित हुआ. कल जीवनक्रम का पहिया संध्याकाल के मोड़ पे जम्हाई भरता नज़र आया था मगर आज गांवों में लोग फिर से सूरज के जागने से पहले जाग चुके होंगे. फिर से शुरू होगी जीवन की वही कहानी. किसान हल-बैल लेकर चल पड़ा अपने काम पे, मजदूर कड़ाही-कुदाल-गैंती-फावड़ा लेकर, तो पनिहारिनें गगरी-मटका लेकर.
माथे पे गगरी सजाए, कमर पे मटका टिकाए, आधी भीगी धोती और कंचुकी में, कमर लचकाती, लटें संभालती, चेहरे पे छलक आई पानी की बूंदें हटातीं किसी तरुण पनिहारिन बाला में कोई कवि अपनी भावना को ढूंढता है तो कोई कलाकार अपनी कलाकृति को. पर वह बेचारी जीवन की हर सुबह और शाम इस रूप और इस काम में अपने जीने का मोल चुकाती है.
फटेहाल फेरीवाले- कोई कुछ बेचता तो कोई कुछ और. सभी इस मायने में एक हैं कि सभी टूटे हैं और जुड़ने और कुछ बनने के प्रयास में प्रतिपल टूट ही रहे हैं. ऐसा लगता है जीवन के सुख-स्वप्न को साकार करने के प्रयास में दुःख-दर्द की दिनचर्या हमारी आदत हो गई है.
रात फिर से एक बार आ चुकी थी. इसके निविड़ अन्धकार में सब कुछ डूब गया- खेत-खलिहान, गली-मकान, मेड़-पगडंडी, लोग और उनके लम्बे साए. हंसीं-खुशी, दुःख-दर्द, दिन की वीरानी और और शाम की उदासी- सभी निशा की नीरवता में बिला गए. मैं भी अपने बर्थ पे सोने चला गया!
© राज़ नवादवी
मंगलवार, १८/०५/१९८२,
उड़ीसा प्रदेश में ट्रेन में कहीं पर
'मेरी मौलिक व अप्रकाशित रचना'
Comment
आदरणीय गिरिराज जी, आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया अन्नपूर्णा जी, मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि आपको लेखनी पसंद आई! सादर!
धन्यवाद महिमाश्री जी!
बहुत सुंदर यात्रा वृतांत...
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