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जन्मा-अजन्मा के भेद से परे

एक सत्य- माँ!

 

तुम ही तो हो

जिसने गढ़ी

ये देह, भाव, विचार,

शब्द!

 

रूप-अरूप-कुरूप में

झूलती देह

गल ही जाएगी

 

भाव, विचार

थिर ही जायेंगे

 

अभिव्यक्ति को तरसते

स्वप्न-चित्र

तिरोहित हो जायेंगे

 

फिर भी चाहना के

उथले-छिछले जल में

डूबते-उतराते

बहक ही जाते हैं  

उस राह पर

जिसके दोनों तरफ हैं ठूंठ

बरसात और धूप में

मुँह बिराते

 

यह राह खो जाती है

दूर क्षितिज में

जहाँ से रोज़

उगता और अस्त होता है

सूर्य

 

इस राह से परे

पगडंडियों के छोर पर

मंदिर की घंटियाँ

निशब्द हैं

 

माँ! शब्द दो!

अर्थ दो!

          - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश नीरज on September 26, 2013 at 6:12pm

आदरणीया मीना जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on September 26, 2013 at 6:12pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी, आपका हार्दिक आभार!

Comment by Abhinav Arun on September 26, 2013 at 5:25pm

इस राह से परे

पगडंडियों के छोर पर

मंदिर की घंटियाँ

निशब्द हैं



माँ! शब्द दो!

अर्थ दो!

   ...उत्कृष्ट भाव सफल सशक्त प्रस्तुति ,,हार्दिक बधाई आ, ब्रिजेश जी 

Comment by रविकर on September 26, 2013 at 5:15pm

शब्द मिलेंगे अर्थ सह, भरे भाव उत्कृष्ट |
श्री बृजेश शुभकामना, करे कृपा माँ सृष्ट ||

Comment by Meena Pathak on September 26, 2013 at 4:04pm

bआहुत सुन्दर रचना आ० बृजेश जी ... बधाई आप को 

Comment by annapurna bajpai on September 26, 2013 at 12:51pm

बहुत ही सुंदर रचना आ0 बृजेश जी बहुत बधाई आपको । 

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