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मेरी प्रिय अमृता जी ... संस्मरण...२

मेरी प्रिय अमृता जी ... संस्मरण...२

 

(अमृता प्रीतम जी से मिलने के सौभाग्य का प्रथम संस्मरण "संस्मरण ... अमृता प्रीतम जीओ.बी.ओ. पर जनवरी में आ चुका है)

कहते हैं, खुशी और ग़म एक संग आते हैं .. यदि यह सच है तो मेरे लिए कई सालों से अक्तूबर का महीना कुछ ऐसा ही है। १७ अक्तूबर को मेरी शादी की सुखद वर्षगांठ और ३१ अक्तूबर को मेरी सर्वप्रिय लेखिका अमृता प्रीतम जी के निधन का दिन ... और उसके साथ लिपटी चली आती है

गहन उदासी ... उनके संग करी हुई बातें ... उनके चेहरे की भाव-मुद्रा ... पलकें झपकती थीं तो जैसे 

कभी-कभी बिना शब्दों के कितना कुछ कह देती थीं, ... और कभी संजीदे ख़यालों के बीच अचानक उनके ओंठों का एक कोर दब जाना ... कि जैसे कोई असह पीड़ा डस गई हो... पीड़ा जो निजि होने के नाते वह साझा न कर सकती हों ... कि मानो कुछ कहना चाहती हों पर कह न पाती हों ... कई बार 

ऐसे ही कुछ पल के लिए बिना बात किए हुए भी अच्छा लगता था ... या यह कहूँ कि यह मौन पल ... शब्दों से अनछुए पल ... और भी अधिक प्रिय लगते थे ... कि जैसे वह ज़्यादा अपनत्व से भरे हों ... कुछ कहने की ज़रूरत ही न हो।

 

... कुछ ऐसा था प्रभाव उनका !

 

अब फिर एक और अक्तूबर है, २०१३ ... और अभी तो ३१ तारीख़ में बहुत दिन बाकी हैं, पर मुझमें जैसे कोई खौफ़ समा गया है...एक भी दिन नहीं बीतता जब अमृता जी  की याद न आए, न सताए।

 

अब जब भी यू.एस.ए. से भारत आता हूँ तो दिल्ली में उनके घर की गली (पता: K-25 Hauz Khas) को सम्मान देने जाता हूँ ... उस गली में मुझको उनकी आवाज़ अभी भी जीवित सुनाई देती है ... 

 

... और आज लगता है जैसे रंगमंच पर कोई मुझको एकाएक ४९ वर्ष पीछे ले गया हो ... जब बुधवार १५ जनवरी,१९६४ ... शाम के ४-४० से ६:३० तक मैं अमृता जी के घर पर उनके साथ था। मैं उन दिनों की सरल पोशाक --सफ़ेद कमीज़ और सफ़ेद पैंट पहने उनके घर की ओर बढ़ रहा था कि अचानक ऊपर देखा तो balcony में अमृता जी ही खड़ी थीं ... एक आँख थोड़ी-सी झुकी हुई और बेहद सरल मुस्कान ... जो मेरे लिए अति सुखदाई थी, क्यूँकि मैं तब केवल २२ साल का था और अमृता जी के स्तर की लेखिका से मिलने के लिए अभी भी संकोची था, लज्जाशील था ... कि बातों में मुझसे कोई गल्ती न हो जाए। लगता है, कुछ भी तो नहीं बदला ... मैं अभी भी वैसा ही हूँ ... संकोची,लज्जाशील... शायद कुछ ज़्यादा ही।

 

सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर गया ... मुझको याद था पिछली बार अमृता जी को पंजाबी में बात करनी ज़्यादा पसंद थी। अत: निम्न वार्तालाप पंजाबी में होने के कारण साथ ही साथ हिन्दी में अनुवादित है।

 

विजय      " नमस्ते। की हाल ए ?"  (नमस्ते, क्या हाल है?)

अमृता जी " ठीक, तुसीं सुणाओ"     (ठीक, आप सुनाइए    )

 

वि०          " ते फ़िर तुसीं मंज़िल दे उते मंज़िल बढ़ां लई ए

                 ( तो आपने मंज़िल के ऊपर मंज़िल बना ली है !"

 

अ०           " मंज़िल ते कदी वी नईं बंढ़दी  (मंज़िल तो कभी भी नहीं बनती)

 

वि०           " या, ए कईए कि इक मंज़िल ने दूजी मंज़िल नूं चुक ल्या ए"

                  ( या, यह कहें कि एक मंज़िल ने दूसरी मंज़िल को उठा लिया है)

 

अ०            " हाँ, मंज़िलां बंण जांदिआं ने,पर फ़िर वी मंज़िल मंज़िल नूं नई चुकदी"

                   (हाँ, मंज़िलें बन जाती हैं, फिर भी मंज़िलें मंज़िलों को नही उठातीं)

 

वि०            " मैं जदों वी कोई मकान नूं बंढ़दा वेखदां तां कुज अजीब ज्यां लगदा ए...

                    इट-पत्थर दी दीवार इट-पत्थर नूं सहारा देंदी ए  ... समाज वी ते पत्थर दा ए, फ़िर वी

                    ए किसे नूं सहारा नीं देंदा "

                    ( मैं जब भी किसी मकान को बनते देखता हूँ तो कुछ अजीब-सा लगता है ... 

                       ईंट-पत्थर की दीवार ईंट-पत्थर को सहारा देती है...समाज भी तो पत्थर का है, पर यह किसी को सहारा नहीं देता)

 

अ०               " ए बड़ा ई rare होंदा ए कि कोई किसे दा सहारा बण के किसे होर नूं चुक लैंदा ए"

                      (यह बहुत ही rare होता है कि कोई किसी का सहारा बन कर किसी को उठा लेता है)

 

अमृता जी ने अचानक आँख  भींच ली, दायं हाथ की उंगलिओं को जैसे पल भर के लिए मसल दिया और निचले ओंठ को दबा लिया ... जैसे कुछ कहने की कोशिश में हों पर अचानक कह न सकती हों।

मैं भी चुप ...और फिर अमृता जी ने पैनी नज़र से मेरी आँख में देखा कि जैसे मुझको परख रही हों।

 

अ०             " किसे नूं चुकण लई determination, self-confidence ते clarity चाइदि ए"

                   (किसी को उठाने के लिए determination, self-confidence और clarity चाहिए)

 

वि०              " ते शायद faith in God वी ते चाइदा ए न ?"

                    ( और शायद faith in God भी तो चाहिए न ?)

अ०              " ओ self-confidence विच ई आ जांदा ए ... जदों self-confidence होए ते भगवान

                      विच विश्वास करना असान होंदा ए ... कोई बड़े हादसे विचों गया होए ते ओदा

                      confidence low होएगा, ते उनूं भगवान विच विश्वास किदां आएगा !"

                      ( वह self-confidence में ही आ जाता है ... जब self-confidence हो तो भगवान

                         में विश्वास करना आसान होता है ... कोई बड़े हादसे से गुज़रा हो तो उसका

                         confidence low होगा, तब उसको भगवान में विश्वास कैसे आएगा !)

 

अमृता जी कुछ इस तरह समझा कर बात कर रही थीं कि जैसे कोई विद्वान दार्शनिक संदेश दे रहा हो ... और हाँ उनकी यह सोच दार्शनिक ही तो थी।

 

इन बातों से हवा कुछ  भारी-सी हो गई थी, अत: रुख बदलने के लिए अमृता जी ने कुछ हल्की बातों का सहारा लिया ...

 

अ०              " ते हुण electrical engineering degree दे बाद कम किथे शूरू कीता ए?"

                     (अब electrical engineering degree के बाद काम कहाँ शूरू किया है?)

 

मैंने बताया कि अभी तो Central Government की Ministry of Power में हूँ तो उनको कुछ अजीब लगा । कहने लगीं कि private company ज़्यादा अच्छी रहती। मैंने बताया कि मेरा इरादा

एक साल में शिक्षा के लिए यू.एस.ए. जाने का है ... मुंबई और कलकता private companies में interview के लिए गया था ... वह सात साल का bond मांगती थीं .. यह मेरे लिए बहुत लंबा था,

और अभी बड़े भाई एक साल के लिए अमरीका गए हुए थे तो भाभी का, उनके बच्चों का, माता-पिता और नानी जी का ख़्याल भी रखना है ...

 

अ०               " तुसीं किने बाई साल दे हो ते एना सारां दा ख़्याल रखदे ओ !"

                     ( आप सिर्फ़ बाइस साल के हैं और इन सब का ख़्याल रखते हैं !)

 

मुझसे कोई जवाब न बना ... पर अमृता जी के मन में उसी समय कोई गंभीर प्रश्न ज़रूर बना।

कुछ पल मेरी आँखों में देखती रहीं ... कुछ नहीं कहा ... और फिर अचानक  ...

             

अ०                  "इक सवाल पुछां ?"

                      (एक सवाल पूछूं ?) ...

                      

                      (long pause again, and a short sigh)

 

अ०                 " विजय जी, एदां क्यों होंदा ए कि असीं दूजां दे नाल प्यार करदे आं, दूजां नूं   

                        आपणा सब कुज देण नूं तैयार हो जांदे आं, लेकिन असीं आपणे-आप नाल प्यार

                        नईं करदे ?"

 

                        (विजय जी, ऐसा क्यों होता है कि हम दूसरों से प्यार करते हैं, दूसरों को अपना

                          सब कुछ देने को तैयार हो जाते हैं, लेकिन हम अपने-आप से प्यार नहीं करते?)

 

अमृता जी से प्रश्न सुनते ही मैं चकरा-सा गया ... इतना गूढ़ सवाल वह मुझसे पूछ रही हैं ... मैं ...केवल २२ साल का अनुभवहीन ...! पल भर को यह भी सोचा कि वह मेरी परीक्षा ले रहीं हैं क्या।

हाथ में हाथ रख कर, हाथों को मलते, अपनी घबराहट को छुपाते, मैंने कहा ...

 

वि०                   " मैं तो आपसे छोटा हूँ ... आप ... आप मुझसे पूछ रही हैं ?"

 

अ०                    " ऐ छोटे-वडे दी गल छडो ... मैं थुवाडे अंदर वेख रहियाँ कि तुसीं किसे नूं 

                           आपणा सब कुज देंण लई तैयार हो ... ते मैंनूं तां लई डर प्या लगदा ए...

                           .... कि थुवानूं दुख होएगा "

 

                           ( यह छोटे-बड़े की बात छोड़िए ... मैं आपके भीतर देख रही हूँ कि आप किसी

                             को अपना सब कुछ देने को तैयार हैं ... और मुझको इसीलिए डर-सा लग 

                             रहा है ... कि आपको दुख होगा )  

 

वि०                      " आपने वह दुख देखा है न !"

 

अ०                       " एस  लई दुख ने दुख नूं पहचाण लिता ए"

                              (इसीलिए दुख ने दुख को पहचान लिया है)

 

वि०                       " अमृता जी, हुण थुवाडे सवाल दा मेरा जवाब ...

                              एस लई कि जदों साडी ज़िंदगी साडे कोल आपणे लै कुज मंगदी ऐ ते असीं

                              आपणें कन बंद कर लैंदे आं ... ते फ़िर साडी ज़िंदगी साडे कोल ठुकराई दूजां

                              ते ज़्यादा भरोसा करदी ए ...तां लगदा ए कि असीं आपणे नाल प्यार नईं

                              करदे "

 

                             ( अमृता जी, अब आपके सवाल का मेरा जवाब ...

                                इसलिए कि जब हमारी ज़िंदगी हमसे अपने लिए कुछ मांगती है तो हम

                                अपने कान बंद कर लेते हैं ... और फिर हमारी ज़िंदगी हमसे ठुकराई दूसरों

                                पर ज़्यादा निर्भर करना शूरु कर देती है ... तब लगता है कि हम अपने

                                साथ प्यार नहीं करते )

 

अ०                          " हुण वेखो... ताईं ते मैं थुवाडे कोल ऐ सवाल पुछ्या सी ... मैंनूं पता सी कि

                                 तुसीं एदां दा ई जवाब दियोगे"

 

                                ( अब देखो ... तभी तो मैंने आपसे यह सवाल पूछा था ... मुझको पता था

                                  कि आप ऐसा ही कोई जवाब देंगे)

 

इन भारी बातों के बाद चाय पी, कुछ इधर-उधर की हल्की बातें करीं, उनके उपन्यास की, मेरी कविताओं की बातें करीं। ... और फिर मैंने उन्हें याद दिलाया कि पिछली बार उन्होंने कहा था कि अगले मिलन पर वह अपने उपन्यास की पंक्तियां अपने मुँह सुनाएँगी । अत: यह अच्छा अवसर था

उनसे सुनने का ... और उन्होंने सुनाई भी।

 

अपने उपन्यास "एक सवाल" से कुछ पंक्तियां जो उन्होंने सुनाईं ... (हिंदी में अनुवाद...)

 

जगदीप ने अपनी बाहों को रेखा की बाहों के साथ मिला कर कहा,...

 

"रेखा, चारों बाहों का रंग एक है। बताओ तुम्हारी कौन सी और मेरी कौन सी?"

रेखा ने पहले अपनी बाहों को देखा और फिर जगदीप की...और कहा..

"यह मेरी रही नहीं और यह मेरी होने से रहीं"

कह नहीं सकता कि कितना अच्छा लगा अमृता जी के मुंह से यह सुन कर !

...और इसके बाद अपने उपन्यास "अशु" से ...

नीना मेरे एक उपन्यास की पात्र है । पतले-से, सांवले-से, कोमल-से मुख वाली नीना।

एक रात वह मेरे सपने में आई ... सामने खड़ी बस रोती रही। वह रोए जा रही थी और मैं

उसे चुप करा रही थी। फिर वह हिचकियां लेती हुई मेरी बांह हिलाकर मुझसे कहने लगी,

"मेरी उम्र थी यह दुख सहने की ? मेरा चेहरा था इन आँसुओं के लायक ? तुमने मेरी कहानी

ऐसी क्यों बना दी ? ... यह तुमने क्या किया है मेरे साथ ?"  ... यदि ईश्वर भी रात के समय

सोता हो और उसे सपने आते हों तो मैं भी एक बार नीना की तरह उसके पास जाकर उसकी

बांह हिलाऊं और उससे यही सवाल पूछूं जो नीना ने मुझसे पूछे थे।

इतनी बातों में पता ही नहीं चला कि कब शाम हो गई थी, कब और कैसे साड़े-छे बज गए थे ...

एक बार फिर मिलने की बात करके, झुककर नमस्ते करी, और मैं घर की ओर चला ... घर

आने को मन नहीं कर रहा था तो रास्ते में हमायूं के मकबरे के मैदान में बैठ कर लगभग

एक घंटा बिता दिया ... उस स्वर्णिम शाम के बारे में सोचते-सोचते जो भगवान ने मेरी झोली में

पारितोषिक के समान दी थी।

 

अब ३१ अक्तूबर पुन: आने वाला है, और न जाने मुझको कुछ डर-सा लगने लगा है ... कुछ वैसे ही

जैसे अमृता जी को मेरे लिए डर था ... जब उन्होंने उसी शाम मुझसे कहा था ...

 

"यह छोटे-बड़े की बात छोड़िए ... मैं आपके भीतर देख रही हूँ कि आप किसी

 को अपना सब कुछ देने को तैयार हैं ... और मुझको इसीलिए डर-सा लग 

 रहा है ... कि आपको दुख होगा"

" अमृता जी, मेरा हाथ पकड़ लो, please, आज मुझे बहुत, बहुत दुख हो रहा है ! " 

-- विजय निकोर                                                                                                             

६ अक्तूबर, २०१३

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on October 17, 2013 at 12:40pm

/आपने इस प्रकार से इसे व्यक्त किया है मानो हम भी वहीं आपके साथ अमृता जी के समक्ष विराजमान हैं.... इतनी रोचकता है इसमें कि लंबा होने के बावजूद एक ही बार में पूरा पढ़ने की इच्छा जागृत होती है....//

 

यदि यह संस्मरण रोचक है तो इसका श्रय अमृता जी को है ..

उनकी बातें, उनके मुझसे पूछे हुए प्रश्न ही कुछ ऐसे थे...कि मन को हिला देते थे..

 

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुशील जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on October 17, 2013 at 12:34pm

आदरणीया मीना जी, आपने इस संस्मरण को समय दिया और सराहा...

आपका हार्दिक आभार।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on October 17, 2013 at 12:30pm

//आपको उनकी एक एक बात याद है वो भी इतनी गहरायी के साथ ....लाजवाब आपके शब्द  आपके भाव और आपकी लेखनी .....बहुत बहुत आभार आपका सर//

आभारी तो मैं हूँ... अमृता जी का और अब आपका ... और भगवान का ... कि वह मुझको बार-बार मिलनें को तैयार थीं, कि आपने उनको और मुझको इतना मान दिया... कि भगवान की दया ने यह सब संभव किया।

 

सादर,

विजय निकोर

 

 

Comment by vijay nikore on October 17, 2013 at 12:23pm

//आपके कहे अनुसार मैंने अमृता जी की कुछ किताबें पढी.उनके प्रति आपका स्नेह मन को छू गया.//

मैंने भी जब अमृता जी की किताबें पढ़ीं तो मुझसे रहा नहीं जाता था.. उनकी और किताबें ढूँढता था,

उन्हें बार-बार पढ़ता था ... उनसे मिलने पर पता चला कि वह कितनी real थीं।

 

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on October 17, 2013 at 12:19pm

//आपने इस सौभाग्य को हम से बांटा,नि:संदेह यह हमारा सौभाग्य ही है।
यूं लगा मेरी खुद की मुलाकात हो गई उनसे।
जीवन के संजोये हुए ऐसे ही अनमोल पल समय असमय हमें बहुत बल देते रहते है//

 

जीवन में कई लम्हों को याद कर के निसंदेह मनोबल बढ़ता है, और किसी प्रिय के न होने से

कभी उदासी भी आ जाती है .. यह भावनाओं का मिश्रण अनोखा है। आप इस संस्मरण की

भावनाओं में डूबीं.. इसको सराहा .. आपका हार्दिक आभार, आदरणीया वंदना जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on October 17, 2013 at 12:11pm

//ऐसा लगता है ..जैसे अमृता आज ..इस संस्मरण के ज़रिये हम सब से ..बातें कर रही हैं .//

आपने इतनी विस्तृत प्रतिक्रिया दे कर अमृता जी को और मुझको जो मान दिया है,

उसके लिए आपका हार्दिक आभार। स्नेह बनाए रखें, आदरणीय अभिनव जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on October 17, 2013 at 12:06pm

//संस्मरण पढ़ के तो मुझे ऐसा लगा अमृता जी हमेशा आपके साथ ही हैं//

जी, आपने सही कहा है, आदरणीय गिरिराज जी, उनकी बातें, उनकी किताबें, मेरे साथ हैं, आत्मीय हैं।

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on October 17, 2013 at 12:02pm

इस संस्मरण की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया अन्नपूर्णा जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on October 17, 2013 at 12:00pm

//अति सुंदर और अविस्मर्णीय.... अक्षरस: यंहा प्रस्तुत किया ....//

मेरे पास कई साल पुराने कागज़ों में मुझको अमृता जी से मिलन के

notes मिल गए थे...यह संस्मरण अक्षरस: इसीलिए प्रस्तुत हो सका।

 

सराहना के लिए आपका आभार, आदरणीया महिमा जी।

 

सादर,

विजय निकोर


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 16, 2013 at 4:19pm

//"यह छोटे-बड़े की बात छोड़िए ... मैं आपके भीतर देख रही हूँ कि आप किसी

 को अपना सब कुछ देने को तैयार हैं ... और मुझको इसीलिए डर-सा लग 

 रहा है ... कि आपको दुख होगा"//

यें पक्तियां भाउक कर गयीं आदरणीय, आप किसी के लिए समर्पित रहते हैं और अगला आपके समर्पण पर ही प्रश्न खड़ा कर देता है फिर आप कुछ नहीं कहते, और आपका कुछ नहीं कहना आपकी कमजोरी समझी जाती हैं, आदरणीया अमृता प्रीतम जी की अनुभवी आँखें वो सब कुछ देख रहीं थी जो आम आखें या यह कहें कि अनुभवहीन आखें नहीं देख पा रहीं थी या यह भी कहें कि वो अनुभवहीन आखें समय के चश्में के साथ भविष्य में देख पाएंगी । 

इस संस्मरण को हम सभी के साथ बाँटने हेतु बहुत बहुत आभार । 

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