5+7+5+7……..+5+7+7 वर्ण
जीवन कैसा
एक चिटका शीशा
देह मिली है
बस पाप भरी है
भ्रम की छाया
यह मोह व माया
अहं का फंदा
मन दंभ से गन्दा
शब्द हैं झूठे
सब अर्थ हैं छूटे
तृप्ति कहीं न
सुख-चैन मिले न
फाँस चुभी है
एक पीर बसी है
प्यास बढ़ी जो
अब आस छुटी जो
किसे पुकारें
अब कौन उबारे
एक सहारा
माँ यह तेरा द्वारा
हे जगदम्बे!
शरणागत तेरे
आरती गाऊँ
रज माथ लगाऊँ
आन उबारो
यह जीवन तारो
माँ जगदम्बे!
सुन! हे माता अम्बे!
अब आ जगदम्बे!
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय अरुण भाई आपका हार्दिक आभार! आपको रचना पसंद आई, मेरा प्रयास सफल हुआ!
आदरणीय बृजेश भाई जी वाह माँ को समर्पित अत्यंत लाजवाब चोका, भाई जी इस विधा का न तो अधिक ज्ञान है और न कभी प्रयास किया कुछ कहने का किन्तु आपकी रचना इस विधा पर पढ़कर मजा आया. माँ जगदम्बे को गुहार करती सुन्दर रचना हेतु बधाई स्वीकारें.
आदरणीया सरिता जी आपका हार्दिक आभार! आपको रचना पसंद आई, मेरा प्रयास सफल हुआ!
वाह वाह ब्रिजेश जी चोका में जगदम्बे को विनती बहुत भाई और चोका समझ भी आ गया ,शुक्रिया एवं बधाई इस प्रयास हेतु
आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय बृजेश भाई, सुन्दर भावों और विचारों से सजी आपकी रचना , माँ जगदम्बे की प्रार्थना अच्छी लगी !!!! आपको हार्दिक बधाई !!!
यह केवल एक अनुमान था आदरणीय! कोई जानकारी नहीं| यदि विधा पर और प्रकाश डाला जाए तो आभार होगा|
आदरणीया गीतिका जी मेरे पहले प्रयास को आपका आशीष मिला, यही मेरे प्रयास की सार्थकता है! वैसे यह मेरा पहला प्रयास है, ये आपने कैसे जाना?
सादर!
आदरणीय जीतेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया कल्पना दीदी, आपका हार्दिक आभार!
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