गीत (पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ)
पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो,
जैसे पूछ रही हो मुझसे, क्या मुझ पर भी कुछ लिखते हो।
तुम नयनों से अपने जैसे
कोई सुधा सी बरसाती हो,
कैसे कह दूँ संग में अपने
नेह निमंत्रण भी लाती हो,
फिर भी कहती हो तुम मुझसे, क्यों मुझ में ही गुम दिखते हो,
पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो।
वाणी तुम्हारी वेद मंत्र सी
पावन दिल को छूने वाली,
और रसीले अधर तुम्हारे,
केश हैं जैसे बदरा काली,
तुम मीरा सी श्याम की धुन में, जैसे हो गुमसुम दिखते हो,
पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो।
तुम हो शरद सी ऋतु मस्तानी
हिम का घूँघट ओढ़ चली हो,
तुम वसंत में तन पर अपने
सुमन लताएँ मोड़ चली हो,
तुम वर्षा की रिमझिम धारा, और कभी फागुन दिखते हो,
पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो।
----------------------------------------------------- सुशील जोशी
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
गीत पर विस्तार से अनुमोदन के लिए बहुत बहुत आभार आपका आदरणीया डॉ. प्राची जी... शिल्प के विषय में आपने जो भी कुछ बताया है उस पर अवश्य ही ध्यान दूँगा..... यह मेरा सौभाग्य है जो इस मंच पर आप जैसे विद्वजनों से कुछ सीखने को मिल रहा है...... आशा करता हूँ कि यह स्नेह भविष्य में भी यूँ ही बना रहेगा..... सादर
आदरणीय सुशील जोशी जी
गीत की सहजता मुग्धकारी है...शब्द चयन भाव प्रस्तुति के अनुरूप सहज है ..बहुत बहुत बधाई! निश्चित ही आपके लेखन में बहुत आगे तक संभावनाएं दिखाई देती हैं.. पूरी प्रस्तुति में यदि अंतरे में ३२ और बन्दों १६-१६ मात्रा का ही निर्वहन होता प्रवाह बिलकुल निर्बाध होता...
पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो,...३२
जैसे पूछ रही हो मुझसे, क्या मुझ पर भी कुछ लिखते हो।...३२....यदि ऊपर की पंक्ति में स्त्री के लिए दीखते हो प्रयुक्त किया गया है तो दूसरी पंक्ति में रही हो क्यों? यहाँ भी यदि रहे हो होता तो?
तुम नयनों से अपने जैसे...१६
कोई सुधा सी बरसाती हो,.१७ .प्रेम/नेह.मधुर सुधा सी बरसाती हो..१६ (भाव वही रखते हुए शब्द को परिवर्तित कर साधना चाहिए)
कैसे कह दूँ संग में अपने...१७ ..यहाँ संग शब्द बदले जाने से मात्रा सही होगी (..कैसे कह दूँ दृग कोरों में..१६ )शायद भाव वैसे ही लगें!
नेह निमंत्रण भी लाती हो,...१६
फिर भी कहती हो तुम मुझसे, क्यों मुझ में ही गुम दिखते हो,..३२
पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो।......३२
वाणी तुम्हारी वेद मंत्र सी..१७.........तुम्हारी को बदलना चाहिए ..(वाणी शुचिकर वेद मन्त्र सी.....१६ )
पावन दिल को छूने वाली,...१६
और रसीले अधर तुम्हारे,....१७...... अब आप इसी प्रकार मात्रिकता पर इस गीत को साधिये और देखिये..
केश हैं जैसे बदरा काली,....१७ .................बदरा या बदरी काली
तुम मीरा सी श्याम की धुन में, जैसे हो गुमसुम दिखते हो,...........यह पंक्ति व्याकरण के अनुरूप नहीं है..दुबारा देखिये
पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो।
यह बहुत मधुर लालित्य पूर्ण गीत है... इस गीत प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई
शुभेच्छाएं
गीत पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय विजय मिश्र जी.....
आपकी यह टिप्पणी पाकर लगता है कि मेरा लेखन सफल हुआ आदरणीया शशी जी...... यह मेरी खुशकिस्मती है कि आप बार बार इस गीत को पढ़ रही हैं..... इससे अवश्य ही मुझे प्रोत्साहन मिलेगा...... सादर आभार आपका....
आपके स्नेह के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय अरुन जी.....
आपको गीत पसंद आया तो मेरी लेखनी को संबल मिला है आदरणीय बृजेश जी..... हार्दिक धन्यवाद आपका
अनुमोदन के लिए आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय विजय निकोरे जी..... आप बड़ों का आशीर्वाद एवं माँ शारदे की कृपा रही तो अवश्य इस प्रकार की रचना आगे भी पढ़ने को मिलेंगी..... यद्दपि मैं इस क्षेत्र में अभी बहुत ही छोटा सा हस्ताक्षर हूँ.....
waah waah kya baat hai aapka yah geet bahut pasand aaya , har baar aati hoon to padh leti hoon , badhai aapko sushil ji
वाह आदरणीय सुशील भाई जी वाह प्रेम रंग में सराबोर बहुत ही सुन्दर गीत रचा है आपने श्रृंगार रस का धारा बह चली बहुत बहुत बधाई स्वीकारें
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