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ग़ज़ल-निलेश 'नूर'- कोई दर्द आँखों में दिखता नहीं है...

122, 122, 122, 122


कोई दर्द आँखों में दिखता नहीं है,
है इंसान कैसा, जो रोया नहीं है??
***

मेरी बात मानों, न यूँ ज़िद करो अब,
दुखाना किसी दिल को अच्छा नहीं है.

***

सभी है किसी और की खाल ओढ़े,
तेरे शह्र में, कोई सच्चा नहीं है.

***

मुझे देख रंगत बदलता है अपनी,
वगरना वो बीमार लगता नहीं है.

***

लगाया करो आँख में आप काजल,
ये है अर्ज़ मेरी, ये फ़तवा नहीं है.   

***

वो करता है तारीफ़ सबकी हमेशा,
हमारा ही वो नाम लेता नहीं है.  

***

लगा अब न मजमा, छुपाकर इसे रख,
मुहब्बत है प्यारे, तमाशा नहीं है.

***

कभी तो निकलिए किसी शाम घर से,
बहुत रोज़ से चाँद निकला नहीं है. 

***

उलझ सा गया है वो दुनियाँ जहाँ में,
रहा ‘नूर’ पहले सरीखा नहीं है.  

*********************************************
निलेश 'नूर' 
मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by गिरिराज भंडारी on October 23, 2013 at 2:17pm

आदरणीय बहुत खूबसूरत गज़ल कही है , हर शेर उम्दा हुये हैं , आपको तहे दिल से मुबारक बाद !!!!!

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 23, 2013 at 12:53pm

आदरणीय निलेश जी बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने सभी अशआर अच्छे बन पड़े हैं मेरी ओर से दाद कुबूल फरमाएं.

लगा अब न मजमा, छुपाकर इसे रख,
मुहब्बत है प्यारे, तमाशा नहीं है. बहुत खूब

कभी तो निकलिए किसी शाम घर से,
बहुत रोज़ से चाँद निकला नहीं है. वाह शानदार शेर

Comment by शकील समर on October 23, 2013 at 12:33pm

कभी तो निकलिए किसी शाम घर से,
बहुत रोज़ से चाँद निकला नहीं है.......................ये तो जानलेवा हो गया...

बहुत बहुत आभार आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी एक उम्दा गजल पढ़वाने के लिए।

कृपया ध्यान दे...

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