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बातों बातों में कट गया सफ़र पता ही न चला
आखिर में था न कोई शिकवा न कोई था गिला
बातों बातों में कट गया सफ़र पता ही न चला

कभी रस्ते में सताया इस भीड़ ने
गिरे भी तो उठाया इस भीड़ ने
यों ही चलता रहा सिलसिला
पता ही न चला ..

बातों बातों में कट गया सफ़र पता ही न चला

जागते थे रात भर उजाले की चाह में
वो सपने ही सहारे थे उस राह में
यों ही एक दिन मिल गया शिखर पता ही न चला

बातों बातों में कट गया सफ़र पता ही न चला

वहां किलकारियां थीं बहारों में
और खुशियाँ थीं हज़ारों में
फिर जाने क्यों न हुआ गुज़र
पता ही न चला..

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Comment

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Comment by Bhasker Agrawal on January 19, 2011 at 3:45pm
धन्यवाद गणेश जी

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 16, 2011 at 3:44pm

बहुत बढ़िया भाष्कर जी ,

कब शुरू हुई कविता और कब ख़त्म , पता ही न चला .....

बहुत ही सरल प्रवाह के साथ आपने कविता लिख है , बधाई आपको ,

कृपया ध्यान दे...

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