दीवार
मैं जानता हूँ
तुम्हें उस दीवार से डर लगने लगा है,
दीवार, जो तुम्हारे और तुम्हारे अपनों के बीच
समय ने खड़ी कर दी है.
उठो,
उस दीवार से ऊपर उठो
नहीं तो सुबह औ’ शाम
उसकी लम्बी होती छाया
तुम्हें लील लेगी.
उस पार देखने के लिये
ऊपर उठना पड़ेगा,
उस दीवार से बहुत ऊपर –
और,
दीवार को नीचा दिखाने के लिये
तुम्हें नीचे आना पड़ेगा,
उस ज़मीं पर
जहाँ तुम्हारे अपने
तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं.
अगर सिर्फ़ सोचते रहोगे
दीवारें खड़ी होती जाएँगी
तुम्हारे चारों ओर
नज़दीक – और नज़दीक
चुन दिये जाओगे
तुम अपने ही सोच द्वारा
रंग, जाति, भाषा और धर्म के
भंगुर ईंटों के बीच,
हमेशा के लिये.
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
वाह! अदभुत! सच ही, कितने टुकड़ों में बंटा है आज आदमी. ये विभाजन हमें अलग-थलग करता जा रहा है. इस स्थितियों को जो सुन्दर शब्द मिले हैं कि बस बारबार पढ़ते ही जानो का मन होता है! आपको हार्दिक बधाई!
सादर!
बहुत ही खूबसूरत रचना है आ0 शर्दिन्दु जी..... हार्दिक बधाई...
वाह! तमाम विसंगतियों के बीच भी जो जिजीविषा आपकी रचनायें जीती हैं वह अतुलनीय है!
इस सुन्दर अभिव्यक्ति पर आपको हार्दिक बधाई!
वाह ... सुंदर... एक लाजवाब रचना के लिए बधाई स्वीकार करें आ0 शरदिंदु जी ... एक ऐसी अभिव्यक्ति जो दिल को छु गई .... धन्यवाद आपका .....
मैं जानता हूँ
तुम्हें उस दीवार से डर लगने लगा है,
दीवार, जो तुम्हारे और तुम्हारे अपनों के बीच
समय ने खड़ी कर दी है.
सच! इन्सान लम्बे समय तक अपने स्वार्थ की ईंटों व् असुरक्षित दूरियों के गारे से, रिश्तों के मध्य एक अनचाही दीवार खड़ी कर लेता है, अगर सही समय पर निस्वार्थ भावनाओं से उस दीवार को गिराया न जाय तो सुबह से दोपहर तक, फिर दोपहर से शाम तक किसी न किसी को उसकी परछाई में रहना ही पड़ता है, शायद इसी तरह निर्मल हवाओं का झोका भी बट कर रह जाता है..
बहुत ही सुंदर भाव की सन्देशप्रद रचना पर हृदय से बधाई स्वीकारें आदरणीय शरदिंदु जी
सुन्दर शब्दों से जड़े भाव , कविता को अनुपम बनाते हुए पाठक के दिल में पसर जाते हैं !
इस संदेशपरक रचना के लिए ढेर सराहना स्वीकारें।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीया गीतिका जी, आप संवेदनशील रचनाकर्मी हैं इसीलिये मेरी इस रचना का तत्व आपसे छुपा नहीं रहा. विद्वत प्रतिक्रिया के लिये आभार. सादर.
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन जी, आपके सहज उच्छ्वास से स्पष्ट है कि मेरी रचना ने आपके अंतर्मन को स्पर्श किया है...मेरे लिये इससे बढ़कर और क्या हो सकता है! आप लखनऊ वासी हैं, मैं भी. निकट भविष्य में आपसे बहुत कुछ सीखने की इच्छा रखता हूँ. स्नेह बनाए रखें. सादर.
आदरणीया प्राची जी, आपने जिस तन्मयता से मेरी रचना पढ़ी है उसीसे मैं धन्य हो गया. आपने जो परिवर्तन/संशोधन किये हैं वे सर्वथा उचित हैं. प्रोत्साहन और ज्ञानवर्धन के लिये सदा आभारी रहूंगा. सादर.
आदरणीय रचना बहुत सार्थक है, पर क्या ये दीवार सिर्फ और सिर्फ समय द्वारा खड़ी की गयी है। यह प्रश्न इस कविता को पढने के बाद मेरे अंतर्मन में गूंज रहा है। अगर समय मिले तो अवश्य मार्गदर्शन करें। हार्दिक बधाई।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online