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ढूँढती है एक चिड़िया

इस शहर में नीड़ अपना

आज उजड़ा वह बसेरा

जिसमें बुनती रोज सपना

 

छाँव बरगद सी नहीं है

थम गया है पात पीपल

ताल, पोखर, कूप सूना

अब नहीं वह नीर शीतल

 

किरचियाँ चुभती हवा में

टूटता बल, क्षीण पखना

 

कुछ विवश सा राह तकता

आज दिहरी एक दीपक

चरमराती भित्तियाँ हैं

चाटती है नींव दीमक

 

आज पग मायूस, ठिठके

जो फुदकते रोज अँगना

 

भीड़ है हर ओर लेकिन

पथ अपरिचित, साथ छूटा

इस नगर के शोर में अब

नेह का हर बंध टूटा

 

खोजती है एक कोना

फिर बनाये ठौर अपना

 

-  बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by वेदिका on November 23, 2013 at 9:46pm

सुंदर गीत है| दर्द की भावनाओं को बहुत अच्छे से व्यक्त किया गया है| दिहरी के प्रयोग के बारे मे जानना चाहती हूँ| गीत रचना पर शुभकामनायें आ० बृजेश जी!

सादर !!


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Comment by गिरिराज भंडारी on November 23, 2013 at 9:16pm

आदरणीय नीरज भाई , बहुत सुन्दर गीत की रचाना की है आपने , हार्दिक बधाई !!!!! दिहरी-- समझ नही सका क्या देहरी को दिहरी लिखा गया है , अगर है तो क्या ये उचित है ?

Comment by Sunil Gupta on November 23, 2013 at 1:03pm

कुछ विवश सा राह तकता

आज दिहरी एक दीपक

चरमराती भित्तियाँ हैं

चाटती है नींव दीमक..............अति सुन्दर भावाभिव्यन्जना से समृद्ध एक प्रभावशाली रचना हेतु मेरी हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करे भाई बृजेश नीरज जी.

Comment by Vindu Babu on November 23, 2013 at 11:38am

वास्तविकता को परिलक्षित करता हुआ बहुत ही अच्छा गीत रचा है आपने आदरणीय।

जीव मात्र  के दर्द को अपना समझ अभियक्त करना आपके साहित्य की विशेषता है ।

सादर बधाई स्वीकारें इस सुंदर रचना के लिए।

Comment by Shyam Narain Verma on November 23, 2013 at 10:23am
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ.

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