इस नदिया की धारा में
कितने टापू हैं उभरे
कहीं हुई उथली-छिछली
तो कहीं भँवर हैं गहरे
पंख नदारद मोरों के
तितली का है रंग उड़ा
भौंरा भी अब ये सोचे
आखिर कैसे फूल झड़ा
चिड़ियों की गुनगुन गायब
यहाँ नहीं अब पग ठहरे
कल-कल करती जलधारा
अब सहमी औ ठिठकी सी
सिकुड़ी-सिमटी देह लिए
नदिया चलती, बचती सी
इक मरीचिका सी छलने
बीज मरू के हैं अँकुरे
काली सी बदरी छाई
नील गगन भी स्याह हुआ
कोयल, पपिहा आस लिए
अब तो फूटे फिर अँखुआ
सीप खड़ी तट पर सोचे
कब कोई इक बूँद झरे
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय Atendra Kumar Singh "Ravi" जी आपका हार्दिक आभार!
//अगर देखा जाय तो सीप की ऐसी ही दशा होती है बराबर वो आस में ही होती है ....खैर// ....................आदरणीय मैंने इस बिम्ब को लेकर कोई गलती की है क्या?
आदरणीय गोपाल जी रचना पर आपकी उपस्थिति हेतु आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय बृजेश जी,
गीत की मात्रिकता और शब्द समुच्चय निर्वहन 'सम के साथ सम व विषम के साथ विषम शब्दों के परिपालन' से शिल्प बहुत सुगठित हुआ है जिस पर बहुत बहुत बधाई आदरणीय
नदिया का ठिठकना सिकुड़ना और प्रकृति के सौन्दर्य की क्षति नें सुन्दर अभिव्यक्ति पाई है..
हार्दिक बधाई
एक सफल और समृद्ध गीत के लिए हार्दिक बधाई, बृजेशजी.
शुभ-शुभ
काली सी बदरी छाई
नील गगन भी स्याह हुआ
कोयल, पपिहा आस लिए
अब तो फूटे फिर अँखुआ
सीप खड़ी तट पर सोचे
कब कोई इक बूँद झरे
आदरणीय बृजेश जी अगर देखा जाय तो सीप की ऐसी ही दशा होती है बराबर वो आस में ही होती है ....खैर उत्तम गीत के लिए हार्दिक बधाई
KAHIN HUYEE UTHALI CHICHLI TO KAHIN BHNWAR HAIN GAhRE
आदरणीय अखिलेश जी आपका हार्दिक आभार! ये गीत जीवन के खोखलेपन और सामाजिक विसंगतियों को ध्यान में रखकर लिखने का प्रयास किया था. हाँ बिम्ब जरूर नदी से लिए थे.
सादर!
आदरणीय सचिन देव जी, आपका हार्दिक आभार!
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