"एक लाख पचपन हजार.. एक
एक लाख पचपन हजार.. दो
एक लाख पचपन हजार.. तीन ..."
अधिकारी महोदय ने जोर से लकड़ी का हथौड़ा मेज पर दे मारा. रघुराज ठेकेदार की तरफ देखते हुए वे धीरे से मुस्कुरा दिए.
रघुराज ठेकेदार ने भी आँखों ही आँखों में अधिकारी महोदय को मुस्कुराते हुए अपनी सहमति जतायी और अपने मित्र मोहन के कंधे पर हाथ रख धीरे से बोल उठे, ''ओये मोहन्या..चल भाई, हम भी अब अपना काम करें. अधिकारी महोदय के लिए पूरा इंतजाम करना है ''
दोनों खुश-खुश नीलामी स्थल से बाहर निकल गये...
जितेन्द्र ' गीत '
( मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
क्या बात जितेंदर जी इतने कम शब्दों में अपनी बात कह गए ,बधाई
जय हो, वाह्ह्ह्ह्ह्ह क्या बात है। अधिकारियों से सांठ गांठ रखनी ही पड़ती है,:) :)
नीलामी में भाग लेने वालों की आपस में एकता और अधिकारी से सांठ - गांठ होती है, अगली बार रघुराज चुप रहेगा कोई और बोलेगा। देश की किसको फिक्र है चूना कत्था सब लगने दो। इस देश में हर कहीं कड़वी सच्चाइयों की भरमार है, बस धृतराष्ट्र बने बैठे रहो उसी में स्वयं की भलाई है वरना.....। हार्दिक बधाई जितेन्द्र भाई लघु कथा की॥
कोई ऐसे जगह नहीं जहां घपला ,भ्रष्टाचार न हो दिखाने भर के लिए औपचारिकताएँ निबाही जाती हैं बढ़िया कटाक्ष किया है ,बहुत-बहुत बधाई जीतेंद्र गीत जी
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