रघु सुबह-सुबह ऑटो रिक्शा लेकर सड़क पर निकला ही था क़ि तभी ट्रैफिक पुलिस के एक सिपाही ने हाथ देकर रिक्शा रोक लिया, रघु एक अंजाने भय से कांप गया |
"स्टेशन जा रहे हो क्या ? चलो मुझे भी चलना है" सिपाही जी अपने चिरपरिचित अंदाज मे बोले |
"जी, साहब, स्टेशन ही जा रहे हैं"
आज दिन ही खराब है, सुबह सुबह पता नही किसका मुँह देख लिया था, अभी बोहनी भी नही हुई और सिपाही जी आकर बैठ गये, मन ही मन खुद को कोसते हुए रघु गंतव्य की ओर बढ़ चला | रघु स्टेशन पहुँच कर सभी यात्रियों से किराया लेने लगा | सिपाही जी भी किराया निकाल रघु की तरफ बढ़ा दिए |
"अरे साहब यह क्या ? मैं आपसे भाड़ा लूँगा ? आप रहने दीजिए |"
"क्यों ? तुम्हारा ऑटो रिक्शा पानी से चलता है क्या ?"
नही साहब रिक्शा तो पेट्रोल से ही चलता है, पररररर .....
(मौलिक व अप्रकाशित)
पिछला पोस्ट =>लघुकथा : बलात्कार
Comment
पररररर .....
Hmmmmmm....
बहुत अच्छी लघु कथा , अंत काफी अच्छा संदेश दे रहा है , बहुत बधाई आपको आ0 बागी जी ।
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ..... बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय गणेश जी
प्रचलित सामाजिक छवियों को तोड़ना कितना कठिन है, और पुलिस महकमे की सामाजिक छवि की तरफ सफलता पूर्वक ईशारा करती इस रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई मा0 बागी सर।
सुन्दर लघु कथा! अंत ने दिल को सुकून दिया! आपको हार्दिक बधाई!
वाह बागी जी आपकी लघुकथा कहन का जवाब नहीं
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