कल्पना के मुक्त पर से
सीमाओं तक जाऊँगी।
दुश्वारियों से परे, निज
अस्तित्व को मैं पाऊँगी।।
पर हीन पंछी के हृदय
वेदना ने गान गाये।
बह न पाए अश्क जो भी,
वो शब्द सुर ही बन गये।
नभ सिन्धु तक सैर करके
रश्मि मोद चुन लाऊँगी।।
दुनिया के वीराने पथ
दृष्टि नहीं टिकती जिनपर।
संगीत सजायेंगे,उन
राहों से आहें चुनकर।
खुश होंगे सब पत्थर दिल,
गीत वही जब गाऊँगी।।
'मम' में परदर्द' जोड़कर
ऋण-ऋण धन बन जायेंगे।
तुष्ट बनेंगे हम दोनों
भोगी भी सुख पाएंगे।
एक दिन सुख-राशि बनकर
मिल 'अनन्त' में जाऊँगी।।
'मैं' नहीं व्यष्टि का द्योतक
साहित्य बसा है इसमें।
'मैं' की दिशा सही हो तो
संसार सजेगा सचमें।
हर 'मैं' उन्नत होने तक
'मैं को ध्येय बनाउँगी।।
-विन्दु
(मौलिक/अप्रकाशित)
Comment
आभार आदरणीय सक्सेना जी
सादर
//एक प्रश्न आदरणीया गीतिका जी से - क्या वास्तव में कल्पना असीम होती है? क्या रचना में प्रयुक्त 'सीमाओं' शब्द कल्पना की सीमाओं के लिए है, या सामर्थ्य की सीमाओं के लिए, या और किसी ओर इशारा है?
आपके मार्गदर्शन के प्रतीक्षा रहेगी!//
आदरणीय बृजेश जी! किसी रचनाकार की रचना पर मै आपको मार्गदर्शन देने का दुस्साहस नहीं कर सकती| मै अपनी प्रतिक्रिया वापस लेती हूँ|
टिप्पणियों से ज्ञात हुआ कि यह आपकी पहली मात्रिक कविता है. इस प्रयास पर हार्दिक बधाई, वन्दनाजी.
लेकिन एक बात अवश्य कहना चाहूँगा, यदि मुझे सुना गया तो ! कारण, कि अबतक का मेरा अनुभव यही बताता है कि हम अपने कथ्य या तथ्यों के प्रति इतने आग्रही हो गये हैं कि किसी से कुछ सुनना सहज प्रतीत नहीं होता. इसे आप अपने पर कोई टिप्पणी या कटाक्ष न मानें इसकी प्रार्थना है.
विधा कोई हो, प्रयास के साथ उस विधा की मूलभूत बातों को सदा मस्तिष्क में पृष्ठभूमि-धुन की तरह बजते रहना चाहिये अन्यथा गहन कथ्य बस किसी भार की तरह लदे दीखते हैं.
आपकी इस कविता में मात्रिकता के मूलभूत नियमों का निर्वहन नहीं हुआ है.
बाकी, सभीने बहुत कुछ कहा है.
आपका प्रश्न हो सकता है कि मात्रिकता के वो मूलभूत नियम कहाँ हैं.
उत्तर है, आपकी जिज्ञासा और आपके सतत अध्ययन में.
आप इसी मंच पर हैं. समुचित समय दें. हर कुछ पर चर्चा होती है. स्पष्ट होता रहेगा.
शुभेच्छाएँ
आदरणीया वंदना जी, आपकी इस रचना को कई बार पढ़ा. बहुत गहन भाव हैं. शिल्प के विषय में विद्वानों ने थोड़ा इंगित किया है...आप गम्भीर विद्यार्थी हैं साहित्य के क्षेत्र में, शीघ्र ही 'कविता' के हर आंगिक में महारत भी हासिल करेंगी इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है...वैसे मुझसे ये बातें नि:संदेह हास्यास्पद हैं क्योंकि मेरी रचनाएँ आवारा बादल की तरह होती हैं....मै शिल्प का जानता ही क्या हूँ. हाँ, भाव तो दिल को छूते हैं. भावों के माध्यम से यदि रचनाकार और पाठक के बीच संवाद सफलतापूर्वक होता रहे तो कोई भी रचना सार्थक और सुंदर है. मेरे दृष्टिकोण से इस कसौटी पर आपकी रचना खरी उतरती है. आपसे इस मंच की बहुत आशाएँ बँध रही हैं. हार्दिक शुभकामनाएँ.
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