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दरख़्त बदल रहा है

स्वयं खा फल रहा है ।१।

 

मैं लाया आइना क्यूँ

ये सबको खल रहा है ।२।

 

दिया सबने जलाया

महल अब गल रहा है ।३।

 

छुवन वो प्रेम की भी

अभी तक मल रहा है ।४।

 

डरा बच्चों को ही अब

बड़ों का बल रहा है ।५।

 

लिखा जिस पर खुदा था

वही घर जल रहा है ।६।

 

दहाड़े जा रहा वो

जो गीदड़ कल रहा है ।७।

 

उगा तो जल चढ़ाया

अगन दो ढल रहा है ।८।

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on January 26, 2011 at 6:48pm

वाह बहुत खूबसूरत और प्रभावी सामयिक गज़ल !

"

वही है शोर करता

जो सूखा नल रहा है ।२।

 

मैं लाया आइना क्यूँ

ये उसको खल रहा है ।३।

 

दिया ही तो जलाया

महल क्यूँ गल रहा है ।४।

क्या शेर कहे धर्मेन्द्र जी बधाई !!! और शुभ गणतंत्र |

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 25, 2011 at 11:59am
आदरणीय बागी जी,
ग़ज़ल पसंद करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
आप ठीक कह रहे हैं शायद "अब बड़ों" पढ़ने में अब्बड़ों हो जा रहा है जैसा कि आदरणीय दिगंबर जी ने पिछले मुशायरे के दौरान बताया था। इस त्रुटि को दर्शाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
सादर

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 25, 2011 at 10:28am

धर्मेन्द्र भाई , बधाई हो , बेहद खुबसूरत ग़ज़ल कही है , छोटी बहर (फऊलुन फाईलातुन) पर ग़ज़ल को निभाना वैसे तो थोड़ा कठिन काम है पर आपने पूरा न्याय किया है , कथ्य भी पूर्ण और शिल्प भी पूर्ण ,

मैने पूरी ग़ज़ल को गुनगुनाया बिलकुल सुंदर प्रवाह है केवल शे'र ६ के पहले मिसरा मे अटकाव लग रहा है एक बार देख लीजियेगा , हो सकता है कि यह शिर्फ़ मेरे गुनगुनाने मे ही हो |

बहरहाल बेहतरीन प्रस्तुति | दाद कुबूल कीजिये  |

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