दरख़्त बदल रहा है
स्वयं खा फल रहा है ।१।
मैं लाया आइना क्यूँ
ये सबको खल रहा है ।२।
दिया सबने जलाया
महल अब गल रहा है ।३।
छुवन वो प्रेम की भी
अभी तक मल रहा है ।४।
डरा बच्चों को ही अब
बड़ों का बल रहा है ।५।
लिखा जिस पर खुदा था
वही घर जल रहा है ।६।
दहाड़े जा रहा वो
जो गीदड़ कल रहा है ।७।
उगा तो जल चढ़ाया
अगन दो ढल रहा है ।८।Comment
वाह बहुत खूबसूरत और प्रभावी सामयिक गज़ल !
"
वही है शोर करता
जो सूखा नल रहा है ।२।
मैं लाया आइना क्यूँ
ये उसको खल रहा है ।३।
दिया ही तो जलाया
महल क्यूँ गल रहा है ।४।
क्या शेर कहे धर्मेन्द्र जी बधाई !!! और शुभ गणतंत्र |
धर्मेन्द्र भाई , बधाई हो , बेहद खुबसूरत ग़ज़ल कही है , छोटी बहर (फऊलुन फाईलातुन) पर ग़ज़ल को निभाना वैसे तो थोड़ा कठिन काम है पर आपने पूरा न्याय किया है , कथ्य भी पूर्ण और शिल्प भी पूर्ण ,
मैने पूरी ग़ज़ल को गुनगुनाया बिलकुल सुंदर प्रवाह है केवल शे'र ६ के पहले मिसरा मे अटकाव लग रहा है एक बार देख लीजियेगा , हो सकता है कि यह शिर्फ़ मेरे गुनगुनाने मे ही हो |
बहरहाल बेहतरीन प्रस्तुति | दाद कुबूल कीजिये |
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