''मिश्रा जी, बेटी का बाप दुनिया का सबसे लाचार इंसान होता है. आपको कोई कमी नहीं, थोड़ी कृपा करें, मेरा उद्धार कर दें. बेटी सबकी होती है.' कहते-कहते दिवाकर जी रूआंसे हो गए । मिश्रा जी का दिल पसीज गया ।
अगले वर्ष घटक द्वार पर आए तो दिवाकर जी कह रहे थे
''अजी लड़के में क्या गुण नहीं है, सरकारी नौकर है. ठीक है हमें कुछ नहीं चाहिए, पर स्टेटस भी तो मेनटेन करना है. हाथी हाथ से थोड़े ना ठेला जाता है. चलिए 18 लाख में आपके लिए कनसिडर कर देते हैं और बरात का खर्चा-पानी दे दीजिएगा, और क्या. बेटी आपकी है जैसे चाहे संवारें या एक जोड़ी कपड़े में विदा कर दें.. हमें कोई आपत्ति नहीं ''
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
राजेश 'मृदु'
Comment
आदरणीय कुंति जी, मेरे पहले प्रयास को स्वीकारने के लिए आभार, मैंने कोशिश की है आगे देखें कितना सफल होता हूं
आपका सादर आभर मीना जी
18 लाख से थोड़ा थोड़ा कम नहीं हो सकता बाबू जी. लड़की भी तो कमाऊ है. हज़ारों तो घर में लाएगी ही आपकी पुत्रवधू होगी.हम थोड़े ही न दखल देंगे.'' इधर दहेज अब कम देखने को मिल रहा है. लव मेरिज अपना वर्चस्व फैला रहा है.समय ,समय से ही अपना काम करेगा.लघु कथा अच्छी है अब भी बेटे और दहेज का माइड सेट अधिकतर लोगों में बना हुआ है. राजेश जी आपने एक लालची मनोवृत्ति के इंसान की लालच का हद दिखाया है.हार्दिक बधाई.सादर
समय बदल रहा है, इधर मैंने कई शादियों में दहेज का नामोनिशान नही देखा है | लघुकथा हेतु बधाई स्वीकारें आदरणीय राजेश जी
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