तुम ही कहो अब
क्या मैं सुनाऊँ
सरगम के सुर
ताल हैं तुम से
सारी घटाएँ
बहकी हवाएँ
फागुन की हर
डाल है तुमसे
तुम ही कहो .......
तुम बिन अँखियन
सरसों फूलें
रीते सावन
साल हैं तुमसे
तेरी छुअन से
फूली चमेली
शारद की हर
चाल है तुमसे
तुम ही कहो .......
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय राजेशजी, आप अपनी उक्त रचना पर मेरी टिप्पणी को फिर से देख जायें तथा इस रचना के शिल्प संदर्भ से तुलनात्मक अध्ययन करें. संभवतः बहुत कुछ स्पष्ट हो पायेगा.
सादर
आदरणीय, मेरी पिछली कविता पर आपके एवं आदरणीय प्राची जी द्वारा कुछ मार्गदर्शन प्राप्त हुए थे, उसी अनुक्रम में तस्दीक करना चाहता था कि इस बार कितना सफल रहा, सादर
रचना की प्रस्तुति हेतु बधाई
//इस रचना को मैंनें मात्रिकता एवं गेयता दोनों के लिहाज से सुघड़ एवं गुनगुनाने योग्य रखने का प्रयास किया है, इस संबंध में आप सबके स्नेह एवं मार्गदर्शन का आकांक्षी हूं,//
आदरणीय, इस उद्घोषणा का अर्थ नहीं समझ पाया मैं. कृपया उन्मीलित करें..
सादर
आप सबका हार्दिक आभार, सादर
सुंदर मनमोहक कविता से मन आनंदित हो गया, आदरणीय राजेश जी हार्दिक बधाई स्वीकारें
बहुत खूब...
सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें आ राजेश मृदु जी..
मंच के सुधी जनों से कहना भूल गया था कि इस रचना को मैंनें मात्रिकता एवं गेयता दोनों के लिहाज से सुघड़ एवं गुनगुनाने योग्य रखने का प्रयास किया है, इस संबंध में आप सबके स्नेह एवं मार्गदर्शन का आकांक्षी हूं, सादर
आप सबका हार्दिक आभार, सादर
राजेश जी
मधुर भावनाओ से सजी इस कविता के लिए आपको साधुवाद i
sundar
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