यह मोरपंखी मन !
न जाने क्यूँ प्रिये पागल –
हुआ जाता तुम्हारी याद मे यह मोरपंखी मन !
पहाड़ों पर कभी भटके
ढलानों पर कभी घूमे
कभी यह चीड़ के वन से –
घटाओं को बढ़े चूमे ।
यहाँ ठंडी हवाओं मे बढा जाता बहुत सिहरन
न जाने क्यूँ प्रिये पागल अरे यह मोरपंखी मन !
नदी , निर्झर , पहाड़ों पर
भ्रमण करता हुआ जाता
फिज़ाओं मे भटकना अब प्रिये !
पलभर नहीं भाता ।
तुम्हारे बिन हुआ जाता बड़ा सूना मेरा उपवन -
न जाने क्यूँ प्रिये ! पागल अरे यह मोरपंखी मन !
--- मौलिक एवं अप्रकाशित -
Comment
भाई गिरिराज भण्डारी जी,
एक भूवैज्ञानिक के अंतर्मन से निकली भावनाएं कविता बन गयी। प्रशंसा के लिए धन्यवाद !
भाई अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
हार्दिक आभार !
आदरणीय , विरह की तड़्प को सुन्दर बयाँ किया है आपने , बहुत बधाई आपको ॥
हार्दिक बधाई आ. ब्रह्मचारी जी सुंदर गीत के लिए । गीत में प्रवाह भी है।
ब्रह्मचारी जी
अति भावपूर्ण , सुन्दर कविता हेतु बधाई i
बहुत सुन्दर रचना।
बहुत सुंदर मनभावन रचना
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