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ग़ज़ल ,,,,,,,,,,,,,, गुमनाम पिथौरागढ़ी

उन फाका मस्त फकीरों की हस्ती ऐसी थी

माल पुवे फीके थे उनकी मस्ती ऐसी थी

 

राग द्वेष नफ़रत के शहरों में जले फैले

प्यार बढ़ाती थी नानक की बस्ती ऐसी थी

 

जीवन की सोन चिरैया है हवस में अब

ढाई आखर सीखे ना ख़ुदपरस्ती ऐसी थी

 

चूड़ी बहनों की लीं बस्ता था भाई का भी

कीमत यौवन की महँगी या सस्ती ऐसी थी

 

टेबिल कुर्सी जूठे बर्तन या सबकी गाली

गुरु बस्ता कलमे स्याही या तख्ती ऐसी थी

 

मौलिक व अप्रकाशित
गुमनाम पिथौरागढ़ी

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 28, 2014 at 2:36pm

आपके इस रचना पर मेरी हार्दिक बधाई सादर

Comment by coontee mukerji on May 27, 2014 at 5:43pm

हर शेर जीवन की कटुता को बयाँ करता है......गुमनाम जी दाद कूबूल करें.

Comment by शकील समर on May 27, 2014 at 4:53pm

गजल के भाव पसंद आए। इसके लिए बधाई स्वीकारें आदरणीय गुमनाम साहब।
 
एक बात ये कि 'हस्ती' और 'मस्ती' के साथ तख्ती काफिया नहीं लिया जा सकता। और हां, जरा बह्र का उल्लेख कर दें ताकि हम जैसे नवोदित लोगों को आसानी हो। सादर

Comment by Shyam Narain Verma on May 27, 2014 at 10:13am
अच्छी गजल के लिये बधाई.............

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