चार माह की
तपती धरा पर
जैसे ही बारिश की बूँदे बरसी
बो दिये , नन्हे-नन्हे अंकुरों को
कई कतारों में
सभी ने मिलकर
नन्हें -नन्हे से हाथो को
ऊँचा उठाकर
दूर कर दी , मिट्टी की चादर
धीरे से झाँक ने लगे
इस सुंदर सी दुनिया को
दो से चार और फिर छै:
धीरे-धीरे पत्तियां बढ़ने लगी
ढांकने लगी
अपनी ही छाँव से,
नाजुक जड़ों को
धूप में भी बनाये रखी
अपने-अपने हिस्से की नमी
अपनी एकता की दीवार से
तेज बारिश के, बहते हुए पानी में
रोके रहे एक-दूसरे को
बचाये रखा, अपने अस्तित्व को
छोटे-बड़े संघर्षो से गुजरकर
आ गये भर जवानी पर
संयम बनाए रखा
सभी ने मिलकर ढांके रखा
अपने फूलों को, फिर फल को
धीरे से सावन-भादों बिताया
अब अश्विन की तेज धूप में
सभी ने मिलकर
पीली सी चादर ओढ़ ली
खुश है बहुत, अपना सब कुछ
न्यौछावर करने को
मिटा देंगे, अपने पूरे उसी अस्तित्व को
जिसे अपने ही दम पर
बचाये रखा
देना चाहते हैं, कुछ मुझे
कुछ तुम्हें
और कुछ कहते है
रखलो, हमें संजो कर
हम फिर...!
संघर्ष करेंगे.
जितेन्द्र 'गीत'
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
रचना पर आपकी उपस्थति पाकर बहुत मनोबल मिला, आपका आभार आदरणीया मीना दीदी.
सादर!
अति सुन्दर ....बेहद उम्दा ....हार्दिक बधाई
आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय गिरिराज जी. स्नेह बनाए रखियेगा
सादर!
आपका ह्रदय से आभार आदरणीय सुलभ जी. स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
आदरणीय जितेन्द्र भाई , सुन्दर रचना हुई है , आपको दिली बधाइयाँ |
बहुत सुन्दर !
रचना पर आपके स्नेहिल आशीर्वाद से रचना धन्य हुई आदरणीय डा. विजय जी. आपका ह्रदय से आभारी हूँ, स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
रचना पर आपकी उपस्थिति से बहुत संबल मिला. आपका हार्दिक आभार आदरणीया महिमा जी
सादर!
आपकी बधाई सहर्ष स्वीकार है आदरणीय हरी शर्मा जी. आशाओं को मन में लेकर धरा के गर्भ में बोया गया अंकुर जब स्वयं ही संघर्ष कर बहुत सी खुशियाँ देता है बड़ा अच्छा लगता है मनको. रचना पर आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ .अपना स्नेह बनाये रखियेगा.
सादर!
रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ , पवन भाई
सादर!
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