जैऽऽ…….दुर्गामइया की जैऽऽऽ……
नाव के एकबारगी हिचकोले खाने के साथ ही दुर्गा एवं संलग्न प्रतिमाओं का विसर्जन हो गया. माता, माता के शृंगार, शेर के अयाल, महिष के सींग, असुर की फैली भुजायें, सबकुछ एक साथ जल में समाने लगे.
मूर्ति के साथ साथ मनुआ भी पानी में कूदा. उसे न तो दानव का कोई डर था, न उसे माता के आशीर्वाद चाहिये थे.
“अबे.. ये मेरी वाली है..”, कहता हुआ वो डूबती हुई प्रतिमाओं की ओर तैर चला.
उसे उनके पास बाकियों से पहले पहुँचना था, ताकि आने वाली ठंड में अम्मा-बाबूजी को तापने के लिये लकड़ी के पटरों और खपच्चियों का इंतजाम हो सके.
(मौलिक और अप्रकाशित)
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Comment
//अपनी बात कहना और समझाना कब से इस मंच पर पाठक की तौहीन की तरह देखा जाने लगा//
मैंने कब कहाँ कि यह पाठक की तौहीन है ? पाठक तो अपना मंतव्य ही देगा, उससे सहमत या असहमत होना लेखक का अधिकार है.
आपका कहना बिलकुल सही है, सभी लोग अलग अलग सोचते हैं.
आदरणीय गणेश भैया,
//आपकी लघुकथा है यदि आप शीर्षक से संतुष्ट है तो एक पाठक को ठीक लगने ना लगने से क्या फर्क पड़ता है.//
अपनी बात कहना और समझाना कब से इस मंच पर पाठक की तौहीन की तरह देखा जाने लगा, आपने भी कहा है कि
//यदि मैं लिखता तो इसका शीर्षक होता ...जरुरत //
इसका अर्थ ये है कि आपने भी कुछ सोचा फ़िर ये बात कही. अगर सभी एक फ़ार्मेट मे सोचने लगे तो साहित्य साफ़्ट्वेयर प्रोग्रामिंग हो जायेगा. फ़ीड करो और रिजल्ट लो.
इसी बात को आदरणीय योगराज जी ने भी कहा है लेकिन जैसा मुझे उस समय लगा था वो मैने लिखा था. अब आगे मैं इस दिशा में ज्यादा ध्यान दूंगा.
सादर.
आपकी लघुकथा है यदि आप शीर्षक से संतुष्ट है तो एक पाठक को ठीक लगने ना लगने से क्या फर्क पड़ता है.
सादर.
आदरणीय गणेश भैया,
जरुरत तो सबकी थी.
लेकिन यहां बात उस जरुरत को पूरा करने के लिये मची होड़ से है. जहां देवी की प्रतिमा पर भी अधिकार जताना पड़ रहा है और बताना पड़्ता है कि..... ये मेरी वाली है.
सादर.
कथा अच्छी हुई है, शीर्षक बिलकुल ठीक नहीं लग रहा. यदि मैं लिखता तो इसका शीर्षक होता ...जरुरत
बधाई इस प्रस्तुति पर.
आदरणीय जितेन्द्र जी कथा के मर्म को समझ कर विचार देने के लिये घन्यवाद.
आदरणीया वेदिका जी. विचार रखने के लिये धन्यवाद.
आदरणीया राजेश कुमारी जी,
इस तरह के नजारे आपको हर जगह देखने को मिल जायेंगे...कथा को समर्थन दे कर विचार देने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद. सादर.
आदरणीय योगराज सर,
कुछ धमाकेदार शीर्षक सोच रहा था और मेरी नजर पात्र द्वारा कहे गये लाइन पर गयी जो मुझे मुफ़ीद लगी इसी से मैने उसका शीर्षक दे दिया. वैसे अगर बुरा ना माने तो आप इस मामले में मेरी सहायता कर सकते हैं...ये मेरे लिये भी सीखने का सबब होगा...
मुझे हौसला देने के लिये घन्यवाद.
सादर
आदरणीय विनय कुमारजी, कथा पर विचार देने के लिये धन्यवाद.
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