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Shubhranshu Pandey's Blog (24)

खिलौने वाली गन (लघुकथा) – शुभ्रान्शु पाण्डॆय

खिलौने वाली गन (लघुकथा) – शुभ्रान्शु पाण्डॆय

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“पापा, वो वाली गन !  देखो न, कितनी असली सी लगती है !” – सुपर बाज़ार की भीड़-भाड़ में बिट्टू उस खिलौने वाली गन के पीछे हठ कर बैठा था ।

“नहीं बेटा.. हमें वो चावल वाली सेल के पास चलना है । जल्दी करो, नहीं तो वो खत्म हो जायेगा..”

“पापा, इस पर भी सेल की बोर्ड लगा रखी है.. पापा ले लो ना…प्लीऽऽज..”,

बिट्टू की मनुहार भरी आवाज सुन कर किसी का मन न रीझ जाये । लेकिन रमेश अपने एक मात्र हजार…

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Added by Shubhranshu Pandey on March 22, 2016 at 9:30am — 10 Comments

सत्ता का विकेन्द्रीकरण (लघुकथा) // -शुभ्रांशु

“तुम लोग बहू से ही ठीक रहती हो. बात-बात पे वो डांटा करती है न, तभी तुम लोगों का दिमाग ठंढा रहता है ! आ रही है न, गर्मी छुट्टी के बाद.. कल-परसों में.... ,” - तमतमाती हुई सुभद्रा महरी पर बरसती जा रही थी.

“माँजी, साफ तो मैं कर ही रही थी.. ” - महरी ने बात सम्भालना चाहा. 

“चुप रहो ! महीने भर का लेना-देना सब बेकार कर दिया. जरा सा कुछ कहा नहीं कि टालना शुरु.. ”



अखबार पर से आँखे उठा कर रमेश ने पत्नी की ओर देखा. इधर तीन-चार दिनों से…

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Added by Shubhranshu Pandey on July 4, 2015 at 8:00pm — 10 Comments

बन्धन (लघु कथा)// शुभ्रांशु पाण्डेय

“दोनो पैरों के अँगूठों में बन्धी रस्सी भी खोल दो, चिता पर कोई भी गाँठ या बन्धन नहीं होता..”
“चिता पर सारे बन्धन खत्म हो जाते हैं” - किसी और ने कहा.

सुनते ही राकेश पत्नी प्रिया और उसके बीच के सबसे बडे़ बन्धन एक साल के बेटे को अपने सीने से लगाये प्रिया के निर्जीव शरीर को चुपचाप देखता हुआ फिर से फ़फ़क पड़ा.
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(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Shubhranshu Pandey on July 1, 2015 at 12:00am — 22 Comments

आज का समाचार (लघु कथा) // शुभ्रांशु पाण्डेय

“अरे, पेपर कहाँ है ?” - राजेश ने पूछा.

“तुम्हे भी नहीं पता ? मुझे लगा हमेशा की तरह ले कर चले गये होगे फ़्रेश होने. कितनी बार कहा है सबसे बाद में पढा करो. तुम्हारे बाद कोई छूना नहीं चाहता है उसे.” 

“कान्ता बाईऽऽऽ.. पेपर आया था आज ?” - संगीता चीखी.

“हां, मैने पेपर ले कर बेड पर रख दिया है..” 



उधर बेड पर नन्हा चुन्नू पेपर ’पढ़ने’ में लगा था.

पहला पन्ना फ़्लिपकार्ट का ऐड था, जो बिस्तर के एक कोने में पडा़ था. हेड लाइन.. . सरकार ने भ्रष्टाचारियों पर… इसके आगे सुबह…

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Added by Shubhranshu Pandey on June 20, 2015 at 10:30pm — 17 Comments

घर का लुक (लघुकथा)// शुभ्रांशु पाण्डेय

“अरे गुप्ता जी, ये क्या कर रहे हैं आप ?”

“बेटे के स्कूल में पर्यावरण दिवस पर एक नाटक है.. और उसको एक पेड़ बनना है.. इसीलिये ये डालियाँ काट-काट कर उसे दे रहा हूँ.”

“आपने तो इसे पूरा ही काट डाला.. अब तो ये कायदे का पेड़ बनने से रहा. अभी-अभी तो वन विभाग वालों ने इसे लगाया था..”

“भाईजी, सामने से घर का लुक भी खराब कर रहा था, इसी बहाने इसका काम तमाम करूँ..” - बुदबुदाते हुये गुप्ता जी के हाथ और तेज चलने लगे. 

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Shubhranshu Pandey on June 5, 2015 at 6:57pm — 19 Comments

टपकती टोंटियाँ (लघु कथा)// शुभ्रांशु पाण्डेय

चटक धूप. आसमान में उड़ते-उड़ते गला सूख गया था. पानी की एक बूँद कहीं नजर नहीं आ रही थी. पानी या तो बोतलों में बन्द था या  वहाँ स्वीमिंग पूल में था , लेकिन स्वीमिंग पूल के ऊपर लगी जाली के कारण पाना सम्भव नहीं था.

इस प्रचंड गर्मी में सजे-धजे साफ़-सूथरे शहर में प्यास से व्याकुल चिडियों को खसर-खसर करते वो चापाकल, उनके किनारे की खुली नालियाँ, लगातार टपकती म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन की टोटियों की बहुत याद आ रहीं थी.

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Shubhranshu Pandey on May 22, 2015 at 3:00pm — 14 Comments

सम्बल (लघु कथा) // शुभ्रांशु पाण्डेय

भूख और थकावट से चूर दोनों असहाय भाई-बहन एक-दूसरे से लिपट कर लेट गये.

आज सुबह के भूकम्प में अपने मां-पापा को खो देने के बाद से ये छः वर्षीय भाई ही तो उसका सम्बल था.

दो वर्ष छोटी बहन को ऐसा लग रहा था जैसे अपने भाई के सीने पर सर रख देने से ही उसकी सारी समस्याओं का निदान हो गया हो.

अचानक खयाल आया, उसके भाई के लिये आखिर सम्बल कौन है ?

उसके नन्हे हाथ अनायास भाई के गालों पर फैल गये आँसुओं को साफ़ कर उसके धूल भरे बालों को सहलाने लगे. 

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मौलिक…

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Added by Shubhranshu Pandey on May 19, 2015 at 5:18pm — 19 Comments

मन का गुबार (लघुकथा) // --शुभ्रांशु

 “हैलो माँ ! कैसी हो ? खाना खा लिया ? भाभी का क्या हाल है?” माला ने फ़ोन पर अपनी माँ से सवालों की झड़ी लगा दी.

“कहाँ खाया है बेटा? एक तू है जो रोज़ फ़ोन करके आधा-एक घंटा बात कर मन हल्का कर देती है. वर्ना तेरी भाभी को तो हमसे कोई मतलब ही नहीं. बस लगी रहती है अपने कमरे में.. फ़ोन पर.. जब खाना बन जायेगा तो खा ही लूँगी..”, माँ का शिकायत भरे लहजे में जबाब आया.

“ऐसे थोडे ही चलेगा, माँ !“

तभी अन्दर के कमरे से माला की सास की आवाज आयी, “ बहूऽऽ, दोपहर होने को आयी, सुबह का नाश्ता भी…

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Added by Shubhranshu Pandey on May 17, 2015 at 11:30pm — 27 Comments

आउट आफ़ सिलेबस

“पापा, मुझे ज्वाइंट और न्युक्लियर फ़ैमिली के मेरिट्स-डिमेरिट्स के बारे में पढ़ना है.”  राजू ने अपने पापा से कहा.

फिर, चहकते हुये पूछा, "पापा, ज्वाइंट फ़ैमिली में बडा मजा आता होगा न.. सब एक साथ रहते होंगे. खेलने को बाहर भी नहीं जाना पड़ता होगा”, 

“हाँ, बेटा मजा तो बहुत आता था. तेरे दादा-दादी, चाचा-चाची, हमसभी एक साथ रहते थे.. हरतरह से सुख-दुःख में एक साथ.. पर तेरे जन्म के बाद से हम भी न्युक्लियर फ़ैमिली हो गये.”

तभी किचेन से राजू की…

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Added by Shubhranshu Pandey on May 14, 2015 at 10:30pm — 23 Comments

ये मेरी वाली है (लघुकथा) // --शुभ्रांशु पाण्डेय

 जैऽऽ…….दुर्गामइया की जैऽऽऽ……

नाव के एकबारगी हिचकोले खाने के साथ ही दुर्गा एवं संलग्न प्रतिमाओं का विसर्जन हो गया. माता, माता के शृंगार, शेर के अयाल, महिष के सींग, असुर की फैली भुजायें, सबकुछ एक साथ जल में समाने लगे.  

मूर्ति के साथ साथ मनुआ भी पानी में कूदा. उसे न तो दानव का कोई डर था, न उसे माता के आशीर्वाद चाहिये थे.

“अबे.. ये मेरी वाली है..”, कहता हुआ वो डूबती हुई प्रतिमाओं की ओर तैर चला.

उसे उनके पास बाकियों से पहले पहुँचना था, ताकि आने वाली ठंड में…

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Added by Shubhranshu Pandey on October 6, 2014 at 3:30pm — 17 Comments

गंगा की मछली (लघु कथा) // शुभ्रांशु पाण्डेय

“खाना… पानी सब देने के बाद भी जब देखो मुँह उतरा ही रहता है.” तुनकते हुये बहु ने सास के सामने टेबल पर खाने की प्लेट पटक दी...

सास ने अपने बेटे को आंखो की पनियायी कोर से देखा....

वो तो तन्मयता से टीवी पर गंगा में आक्सीजन की कमी से मर रही मछलियों के बारे मे न्यूज़ देख रहा था.

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(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Shubhranshu Pandey on August 1, 2014 at 9:30am — 26 Comments

गंगा के नाले (लघु कथा) // --शुभ्रांशु पाण्डॆय

"अरे वाह आज तो मजा आ गया", रमेश घर में घुसते ही चहकते हुये बोला, ".. दुकानदार ने सामान का बिल बनाते समय साढ़े पाँच सौ रुपये कम जोड़े !"

“पापा, फ़िर तो आपको वो लौटा देना था न !”, बेटी नेहा ने अपनी आँखो को और बडा़ करते हुये कहा.

“पागल हो क्या ?”, मानों उसकी नादानी पर हँसते हुये रमेश ने कहा, “.... आज हम पार्टी करेंगे…”

 

नेहा के मन में टीचर की बतायी बातें कौंध गयीं, “गंगा में तमाम नदियाँ ही नहीं मिलतीं, शहरों के गंदे नाले भी गिरते हैं.”

उसे लगा, वो गंगा में…

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Added by Shubhranshu Pandey on July 28, 2014 at 8:00pm — 12 Comments

गंगा के फ़ूल (लघु कथा) // --शुभ्रांशु पाण्डेय

छपाक्… ! 

मन्नू ने गंगा में कूद कर यात्रियों के चढ़ाये नारियल और फूल छान लिये. 

“अरे ये क्या किया.. जाने देते.. ”, एक यात्री डपटता हुआ चिल्लाया, “..फ़िर किसी और को बेच दोगे.. साले पूजा की चीजें भी नहीं छोडते हैं ये..” 

“जब पूजा करना तो बोलना.. वर्ना सरकार ने अब गंगा को गंदा करने वालों को जेल भेजना शुरु कर दिया है..”, एक तिरछी मुस्कान के साथ मन्नू ने आँख…

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Added by Shubhranshu Pandey on July 20, 2014 at 11:30am — 19 Comments

प्याज के पकौड़े (हास्य-व्यंग्य) // -- शुभ्रांशु पाण्डेय

वापसी में मेरे मकान के बाहर ही मुझे लालाभाई मिल गये. मेरे हाथों मे सब्जियों से भरा थैला देखते ही चौंक पड़े, "क्यों भाई, कहाँ से ये सब्जियाँ लूट कर ला रहे हो?" 

मैने उन्हें ऊपर से नीचे तक निहारा, "लूट कर.. ? खरीद के ला रहा हूँ भाई.."

मेरे कहते ही लाला भाई ने तुरंत बनावटी गंभीरता ओढ़ते हुए कहा, "हुम्म्म.. तब तो इन्कम टैक्स वालों को बताना ही पड़ेगा .. और सीबीआई वालों को भी..!  कि भाई, तुम आजकल भी सब्जियाँ झोला भर-भर के खरीद पा…

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Added by Shubhranshu Pandey on December 17, 2013 at 8:30pm — 26 Comments

रंगीन पन्ने (लघु कथा)// शुभ्रांशु पाण्डेय

"धत्त्तेरे की... क्या भर देते हैं ये न्यूजपेपरों के बीच में..", मैने एकबारग़ी झल्लाते हुये कहा.



कई रंग-बिरंगे पैम्फलेट मेरे अखबार से निकल कर सरसराते हुए जमीन पर गिरते गये. इन रंगीन पन्नों में बच्चे के प्रेप में एडमिशन से…

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Added by Shubhranshu Pandey on October 17, 2013 at 2:37pm — 26 Comments

आज के युवा बनाम राष्ट्रीय युवा दिवस (व्यंग्य) // -शुभ्रांशु

आज मुहल्लेवालों ने राष्ट्रीय युवा दिवस मनाने के लिये एक कार्यक्रम का आयोजन किया था. लाला भाई के प्रयास से ही आज का आयोजन सम्भव हो पाया था इसलिये वे बहुत ही प्रसन्न दिख रहे थे. कार्यकारिणी के सभी सदस्यों के अनुरोध पर कार्यक्रम के मुख्य वक्ता लाला भाई को ही बनाया गया था.

इस वर्ष ठंढ ने न्यूनतम होने के कई सारे रिकार्ड तोड दिये थे. मैं भी शरीर पर कई तह में कपडे तथा सिर पर कनटोप और मफ़लर के साथ जमा था. कडाके की ठंढ आदमी को प्याज के छिलकों की तरह वस्त्र पहनने को विवश कर देती है. तीन-चार…

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Added by Shubhranshu Pandey on January 13, 2013 at 12:30am — 13 Comments

साँतवे सिलिंडर का इंतज़ाम (व्यंग्य) // शुभ्रांशु पाण्डेय

फिलहाल शादी का सीजन खत्म हो चुका है. शादी के सीजन के खत्म होने पर समझिये सभी के लिये आराम का समय. आराम यानि मन का आराम, तन का आराम, धन का आराम और पेट का आराम ! तन और मन की बातें तो जाने दें, लेकिन धन और पेट का आराम सभी के लिए सुकून देने वाला है. प्रत्येक निमंत्रण-पत्र का लिफ़ाफ़ा प्राप्तकर्ता से भी एक अदद लिफ़ाफ़े की उम्मीद तो करता ही है. वो लिफ़ाफ़ा कितना मोटा होगा ये निमंत्रण-पत्र के रूप में आनेवाले लिफ़ाफ़े पर निर्भर करता है. आपकी ओर से जाने वाला हर लिफ़ाफ़ा आपके घर का एकतरह…
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Added by Shubhranshu Pandey on December 26, 2012 at 9:59pm — 8 Comments

गोबर बनाम प्रयोगवाद (हास्य) // शुभ्रांशु

आज कल न्यूजपेपर हों या टीवी का न्यूज चैनल, हर कहीं भ्रष्टाचार के डंक के साथ-साथ मच्छरों के डंक की खबरें भी प्रमुखता से दिख रही हैं. सभी को हिला रखा है. अभी तक मच्छरों से मलेरिया आदि का ही खतरा था, वो भी गरीबों या फिर गये-गुजरे, हाशिये पर छाँट दिये गये स्वप्नजीवी मध्यमवर्गियों को, जो टुटहे फर्राटों में पड़े ’एसी’ के सपने देखा करते थे. लेकिन मच्छर भी आज कल झोपड़पट्टी से निकल कर पॉश होने लगे हैं. इन्हें भी साफ पानी और धनाढ्यों का खून भाने लगा है. फ़िल्मों के एक बडे़ डायरेक्टर की डेंगू…
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Added by Shubhranshu Pandey on November 12, 2012 at 4:15pm — 9 Comments

हिन्दी और मच्छर (हास्य) // शुभ्रांशु

बदलते मौसम की शाम का आनन्द लेने हमसभी पार्क में बैठे थे. हम सभी का मतलब लालाभाई, मैं और एक नये सदस्य भास्करन. तभी भास्करन का मोबाइल किंकियाया. अब उस तरह की आवाज को और क्या शब्द दिया जा सकता है. मोबाइल पर तमिल में काफ़ी देर तक बात चलती रही. यों पल्ले तो कुछ भी नहीं पड़ रहा था लेकिन हमसभी उनके चेहरे के मात्र हावभाव से ही सही, उनकी बातों को पकड़ने की कोशिश करते रहे. कुछ देर के बाद जब उनकी बात खत्म हो गयी तो मैंने अपनी झल्लाहट को स्वर देते हुये ठोंक दिया,
"यार तमिल सुनने में क्या…
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Added by Shubhranshu Pandey on October 13, 2012 at 9:30pm — 14 Comments

कवि-सम्मेलन का आयोजन (हास्य) // शुभ्रांशु

आज सुबह-सुबह बड़कऊ का बेटा कविता ’पुष्प की अभिलाषा’ पर रट्टा मार रहा था  --"चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ.. ." मैथिली शरण गुप्त जी ने बाल कविता लिखी है. शब्दों का चयन, सन्निहित भाव सबकुछ कालजयी है. आँखो को मूँदे कविता को आत्मसात करता हुआ मन ही मन राष्ट्रकवि को नमन किया. अभी मन के दरवाजे पर कुछ और शुद्ध विचार दस्तक देते कि घर के दरवाजे पर दस्तक हुई. सारे शुद्ध विचार एक बारगी हवा हो गये.. "कौन कमबख़्त सुबह-सुबह फ़ोकट की चाय पीने आ गया, यार ?"  झुंझलाता-झल्लाता…

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Added by Shubhranshu Pandey on September 10, 2012 at 9:00pm — 11 Comments

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