“अरे गुप्ता जी, ये क्या कर रहे हैं आप ?”
“बेटे के स्कूल में पर्यावरण दिवस पर एक नाटक है.. और उसको एक पेड़ बनना है.. इसीलिये ये डालियाँ काट-काट कर उसे दे रहा हूँ.”
“आपने तो इसे पूरा ही काट डाला.. अब तो ये कायदे का पेड़ बनने से रहा. अभी-अभी तो वन विभाग वालों ने इसे लगाया था..”
“भाईजी, सामने से घर का लुक भी खराब कर रहा था, इसी बहाने इसका काम तमाम करूँ..” - बुदबुदाते हुये गुप्ता जी के हाथ और तेज चलने लगे.
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय शुभ्रांशु जी, पर्यावरण के महत्त्व को समझने और समझाने का ढोंग करने वालों की दशा और दिशा पर करारा व्यंग्य करती सार्थक और सफल लघुकथा हुई है. निसंदेह लघुकथा अपने मर्म को पूरी सघनता से अभिव्यक्त करती है और पाठक को गहरे तक प्रभावित करती है. इस शानदार प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई
उथलापन और दिखावा व्यक्तित्व का ही हिस्सा हो गया है. घर क् लुक के लिए जीवनी-शक्ति को नोंचना इसी बात का पर्याय है. शुभ संदेश देती एक अच्छी लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई, भाई शुभ्रांशु.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय गिरिराज जी,
रचना के लिये एक अलग बिम्ब के साथ बधाई देने के लिये आभार.
सादर.
आदरणीय मोहन जी.
रचना के मर्म को समझने के लिये धन्यवाद.
सादर.
आदरणीय जितेन्द्र जी,
मेरी रचना आपको पसंद आयी इस बार के लिये बहुत आभार.
सादर.
आदरणीया राजेश कुमारी जी,
आज हम वास्तविकता से दूर प्रस्तुती को ही विशेष महत्व देते हैं रचना पर आने के लिये घन्यवाद.
सादर.
आदरणीय विनय जी,
आपके विचार का आकांक्षी रहता हूँ.
यही इस मंच की यही खुबसूरती है कि यहाँ बेबाकी से आप अपनी बात रख सकते है. सीखने सिखाने की प्रक्रिया सतत चलती रहती है. किसी रचनाकार से एक स्तरीय रचना की उम्मीद, रचना कर्म को और रचना कार को जिम्मेदारी का अहसास कराती है. आपकी बातों पर विशेष ध्यान रखूँगा.
सादर.
आदरणीय गोपाल नारायण जी,
रचना को मान देने के लिये घन्यवाद.
सादर.
आदरणीय कॄष्ण मिश्रा जी,
रचना पर आने के लिये घन्यवाद. सही कहा आपने पर्यावरण दिवस पर अपने हिसाब से एक रचना डाली थी.
सादर.
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