खिलौने वाली गन (लघुकथा) – शुभ्रान्शु पाण्डॆय
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“पापा, वो वाली गन ! देखो न, कितनी असली सी लगती है !” – सुपर बाज़ार की भीड़-भाड़ में बिट्टू उस खिलौने वाली गन के पीछे हठ कर बैठा था ।
“नहीं बेटा.. हमें वो चावल वाली सेल के पास चलना है । जल्दी करो, नहीं तो वो खत्म हो जायेगा..”
“पापा, इस पर भी सेल की बोर्ड लगा रखी है.. पापा ले लो ना…प्लीऽऽज..”,
बिट्टू की मनुहार भरी आवाज सुन कर किसी का मन न रीझ जाये । लेकिन रमेश अपने एक मात्र हजार रुपये के नोट को जेब में ही कस के पकड़ रखा था । महीने के आखरी कुछ दिन थे । और फिलहाल यही उसकी पूँजी थी ।
“पापा प्लीज….”
“नहीं बेटा, ये सही नहीं.. चाइनिज है.. जल्द ही टूट जायेगी.. तुम्हारे लिये बाद में बढिया ले कर देंगे !”
“पापा ये मजबूत लग रही है..”
रमेश की झुंझलाहट का पारा चढ़ने लगा था । कि तभी, एक झटके में उसने बिट्टू का हाथ खींच कर उसे अपने सामने कर दिया और उसकी आँखो में देखा ।
बिट्टू ने अपनी नजर आस-पास डाली और धीरे से कहा, “हाँ पापा.. वो तनु है ना, शर्मा अंकल का बेटा, उसका तुरत टूट गया था..” रमेश को अपना बचपन याद आ गया, जब वो किसी खिलौने के लिये अपने पापा के सामने जमीन पर ही लोट-लोट कर रोने लगता था । उसके पापा उसे भरे बाज़ार में एक-दो थप्पड लगा दिया करते थे । उसे लगा बिट्टू बडा़ हो गया है । तभी तो एक ही बार में बात को समझ कर उसने जिद्द छोड़ दी । उसे सही-गलत खरीदने की पहचान हो गयी है ! या.. उसे अपने पापा की आँखों से झाँकती मजबूरी पढनी आ गयी थी !
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
बहुत बढ़िया , पदकर मन हठात भावुक हो उठा. यह रचना की सफलता है .
आदरणीय पवन जैन जी,
कथा के मूल को आपने बता दिया.
सादर
आदरणीया नयना (आरती) कानिटकर जी,
बच्चे की मानसिकता आज कल बहुत ज्यादा गुढ़ होती जा रही है.
सादर.
आदरणीया राहिला जी,
अपना विचार रखने के लिये आभार.
सादर.
आदरणीय तेज वीर सिंह
कथा पर आने के लिये धन्यवाद. इस भागमभाग में कहीं बच्चे जरुरत से ज्यादा बडॆ होते जा रहे हैं.
सादर.
वाह उसे मजबूरी पढनी आ गई ।बधाई आदरणीय ।
हार्दिक बधाई शुभ्रांशु जी!बेहतरीन लघुकथा!बाप और बेटे की मन की भावनाओं का अच्छा आंकलन और प्रस्तुतीकरण किया है!
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