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सत्ता का विकेन्द्रीकरण (लघुकथा) // -शुभ्रांशु

“तुम लोग बहू से ही ठीक रहती हो. बात-बात पे वो डांटा करती है न, तभी तुम लोगों का दिमाग ठंढा रहता है ! आ रही है न, गर्मी छुट्टी के बाद.. कल-परसों में.... ,” - तमतमाती हुई सुभद्रा महरी पर बरसती जा रही थी.
“माँजी, साफ तो मैं कर ही रही थी.. ” - महरी ने बात सम्भालना चाहा. 
“चुप रहो ! महीने भर का लेना-देना सब बेकार कर दिया. जरा सा कुछ कहा नहीं कि टालना शुरु.. ”


अखबार पर से आँखे उठा कर रमेश ने पत्नी की ओर देखा. इधर तीन-चार दिनों से वो कुछ अधिक ही चिड़चिड़ी-सी हो गयी है. 
तभी रमेश की नजर एक समाचार पर पड़ी - "… नेतृत्व में युवाओं के बढते प्रभाव से पार्टी के बुजुर्ग नेताओं में खलबली…" 
सत्ता के विकेन्द्रीकरण के कारण मची ये खलबली इन राजनीतिक पार्टियों में ही नहीं, सामान्य घरों में भी बदस्तूर हुआ करती है. 
**************
(मौलिक और अप्रकाशित)

Views: 679

Comment

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Comment by savitamishra on July 15, 2015 at 8:46pm

वाह वाह भाई बहुत सुन्दर परिभषित किया विकेंद्रीकरण घरोँ

Comment by Shubhranshu Pandey on July 15, 2015 at 6:35pm

कथा पर आने और विचार देने के लिये बहुत बहुत आभार मिथिलेश जी.

Comment by Omprakash Kshatriya on July 14, 2015 at 8:00am

आदरणीय Shubhranshu Pandey  जी

//सत्ता के विकेन्द्रीकरण के कारण मची ये खलबली इन राजनीतिक पार्टियों में ही नहीं, सामान्य घरों में भी बदस्तूर हुआ करती है. // का सन्देश देती प्रेरक लघुकथा .

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 14, 2015 at 6:01am

//सत्ता के विकेन्द्रीकरण के कारण मची ये खलबली इन राजनीतिक पार्टियों में ही नहीं, सामान्य घरों में भी बदस्तूर हुआ करती है.// 

आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी , सादर 

कोई अछुता कैसे रह सकता है ? कथा हेतु बधाई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 13, 2015 at 11:52pm

अपनी-अपनी सत्ता और अपने-अपने मायने ! जिसकी जितनी पहुँच होती है उतने में ही अपना पैर फैला कर रखना चाहता है. बिम्बों के माध्यम से एक आम घटना को बेहद सफल आयाम मिला है, भाई शुभ्रांशु जी. इस विशिष्ट दृष्टिकोण केलिए हार्दिक बधाई स्वीकारें.
शुभ-शुभ

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on July 6, 2015 at 8:19pm

बहुत ही सुन्दर कटाक्ष ! आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी!

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on July 6, 2015 at 7:26pm

आदरणीय Shubhranshu Pandey जी रचना प्रभावी है .....बधाई 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 6, 2015 at 6:24pm

वाह, वाह, अच्छी लघुकथा के लिए दाद कुबूल कीजिए

Comment by विनय कुमार on July 6, 2015 at 12:50pm

वाह , बड़ी पैनी नज़र | शीर्षक भी कमाल का है , बहुत बहुत बधाई आदरणीय इस लघुकथा के लिए .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 6, 2015 at 12:41pm

हा हा हा 

आदरणीय शुभ्रांशु भाई जी बेहतरीन लघुकथा हुई है.... सांस बहू के संबंधों में आये बदलाव को जिस बारीकी से आपने पकड़ा है, चकित हूँ. बहुत बार देखी गई स्थिति है लेकिन जिस सूक्ष्म दृष्टि से उसका आपने विश्लेषण किया है वह कमाल है. 

बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर 

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