वापसी में मेरे मकान के बाहर ही मुझे लालाभाई मिल गये. मेरे हाथों मे सब्जियों से भरा थैला देखते ही चौंक पड़े, "क्यों भाई, कहाँ से ये सब्जियाँ लूट कर ला रहे हो?"
मैने उन्हें ऊपर से नीचे तक निहारा, "लूट कर.. ? खरीद के ला रहा हूँ भाई.."
मेरे कहते ही लाला भाई ने तुरंत बनावटी गंभीरता ओढ़ते हुए कहा, "हुम्म्म.. तब तो इन्कम टैक्स वालों को बताना ही पड़ेगा .. और सीबीआई वालों को भी..! कि भाई, तुम आजकल भी सब्जियाँ झोला भर-भर के खरीद पा रहे हो ?"
इतना कह कर उन्होंने जोरदार ठहाका लगाया. मैं भी उनके कहने के इस अंदाज़ पर जोर से हँस पड़ा. हमारी जोरदार हँसी सुनकर भास्करन और तिवारीजी भी हमारी ओर ही बढ़ लिये. एक उम्र के बाद ठलुअई का अपना ही मज़ा होता है.
भाकरन ने भी हमारे झोले को आश्चर्य से देखा, "एँ स्वामी, महीने भर की सब्जी एक ही साथ खरीद लाया क्या ?"
इस बात पर तो एक और ठहाका गूँजा !
मैने सफाई दी, "भाई मेरे, अंदर तो मूलियाँ हैं, पत्तों के साथ.. सोही झोला भर गया है. अब तो ये मूलियाँ ही है कि झोलों को भरा दीखने में मदद कर रही हैं."
फ़िर मैंने भी धीरे से चुटकी ली, "खाने के पहले झोला भरने में और खाने के बाद पेट में हवा भरने में...". फ़िर तो देर तक कहकहे लगते रहे.
सभी मेरे साथ हो लिये और मेरे लान में पड़ी कुर्सियों पर जम गये. बातचीत का मुद्दा ढूँढना तो था नहीं, वो तो सभी साथ ही लाये थे, सब्जियों के भाव का !
लालाभाई ने बात को आगे बढाते हुये कहा, "भई इस महँगाई में छोटी सी पालीथिन में ही सब्जियाँ आने लगी हैं... और दाम लगते हैं बडे़ झोलों वाले"
मैने झटके में अपनी बात पूरी की, "सही कहा लालाभाई आपने.. पहले सब्जियाँ खरीदने के लिये ज्यादा सोचने-विचारने की जरूरत नहीं पड़ती थी. जेब में चाहे जितने पैसे होते थे, सब्जियाँ आ ही जाती थीं. लेकिन अब तो सब्जियाँ लाना एक पूरा प्रोजेक्ट ही हो गया है. निकलने के पहले जेब तो भरना ही पड़ता है, सब्जियों को भी दाम और जरूरत के मुताबिक शार्टलिस्ट करना पड़ता है."
इतना कहते-कहते मेरी बोली में हताशा के भाव उभर आये.
भास्करन ने कहा, "भई हमलोग भी सांभर छोड़ कर रसम ज्यादा खाने लगे हैं."
तिवारीजी जो अब तक शांत भाव से इस महँगाई पुराण को सुन रहे थे, इस मद्रासी-मानुस से रसम और सांभर का भेद जानना चाहा. भास्करन ने कहा, "दरअसल सांभर में थोड़ी दाल के साथ-साथ कई सब्जियाँ भी पड़ती हैं. लेकिन रसम के लिए उबले पानी में केवल मसाले ही पड़ते हैं, और खाने का मजा भी चटखारा रहता है.." फिर धीरे से कहा. "लेकिन ये भी कितने दिन लगातार खाया जा सकता है ? यहाँ आपलोगों के बीच रहते हुए तो अब हमें भी भरपूर सब्जियों की आदत पड़ गयी है".....
बातचीत को तथ्यपरक रखते हुए लालाभाई ने कहा, "दाम बढ़ने की शुरुआत प्याज से हुई थी. फिर तो क्या आलू, टमाटर और हरी सब्जियाँ भी उसी राह पर चल निकलीं. अब तो हालत है, कि, ’दाल-रोटी खाओ, प्रभू के गुन गाओ’..."
"क्या साब.. दाल भी तो रुला ही रही है..", मैंने कहा, "अब तो खाने की थाली में उसकी मात्रा भी कम ही रह रही है, उसपर से वो लगातार पतली होती जा रही है. सही कहिये तो नमक-रोटी खाने के हालात हो गये हैं.."
लालाभाई ने कहा, "भाई, तब तो नमक भी संभाल कर ही रखो. वो भी कहीं कहीं झटके देने लगा तो बस कल्याण ही है.. "
"क्या कल्याण है ? सुना नहीं, अभी कुछ दिन हुए बिहार, बंगाल, झारखण्ड, असम में इसी नमक को लेकर क्या मारामारी मची थी ? सौ रुपये किलो तक बिका है ये नमक.. !"
सभी को पिछले ही दिनों न्यूज चैनलों पर सुना सारा बवाला जैसे एकबारगी याद हो आया. सबने हामी भरी.
लालाभाई ने बात को आगे बढा़ते हुये कहा, "पहले ये होता था कि प्याज के छिलके को घर के सामने फेके जाने को लोग बुरा मानते थे. लेकिन अब तो ये प्याज कई अच्छे फलों को मात दे रहा है. लोग घर के बाहर प्याज के छिलके डाल कर अपनी हैसियत बताने लगे हैं.. !"
तिवारीजी इस पूरी चर्चा में केवल श्रोता का ही रोल निभा रहे थे. प्याज आदि के दामों में बेतहाशा बढोतरी का उन पर कोई असर नहीं पड़ रहा था. कारण कि अपनी जान-पहचान का इस्तमाल कर उन्होंने राजस्थान और महाराष्ट्र की प्याज-मण्डियों में पैसा लगा दिया था और अब उनकी कस के कमाई हो रही थी. उन्होंने कुर्सी पर बैठे-बैठे अपना पहलू बदला, गोया बातचीत का भी पहलू बदलना चाह रहे हों.
गंभीर आवाज में उन्होंने कहा, "भाई, हमने तो इस पूरे बवाल में एक अजीब ही नजारा देखा".
फ़िर एक आँख को दबाते हुए बोले, "अपने गुप्ताजी सुबह सैर के वक्त दूसरों के घरों के आगे के प्याज के छिलके अगर पड़े मिलें तो उठा कर अपने घर के आगे बिखरा देते थे.. और फ़िर मुहल्लेवालों वालों पर अपनी धाक जमाने के लिये सफ़ाई करने वालों को झिड़कते फिरते कि सफाई नहीं करता है ये लोग.. कल से प्याज के छिलके घर के आगे पड़े हैं.."
उनके इस कहने पर सभी हँसने की जगह खोखली सी ही-ही ही-ही कर रह गये. सभी सबको पता है कि तिवारीजी और गुप्ताजी के बीच छत्तीस का आँकडा़ है.
लालाभाई ने तुरत मानों तार्किक सवाल किया, "ऐसा आप कैसे कह सकते हैं, भाई ? टहलते तो आप शाम के वक्त हैं. फ़िर आपको सुबहवाली जानकारी कैसे हो गयी ?"
तिवारीजी जैसे सफाई देने को तैयार ही बैठे थे. उन्होंने तुरत ही जड़ दिया, "क्या लालाभाई, आपभी न ! भाई, उनका पोता मेरे पोते का दोस्त है. उसीने कहा था कि हमारे घर तो पन्द्रह-बीस दिनों से प्याज तो आया ही नहीं है."
तिवारीजी ने थोडे़ रुआब से फिर आगे कहा, "खाने-पीने के मामले में भाई हम कोइ काम्प्रोमाइज नहीं करते. हमने तो अपने घर पर आनेवाले सभी को इस दौरान प्याज के पकौड़े या प्याजी खिलाया है. कम से कम हमारे यहाँ तो आ कर प्याज की प्यास मिटे. उनके इस कहे पर सभी ने मुँह बना लिया.
माहौल को बिगड़ता देख कर उन्होने ही बात के सिरे को फ़िर से पकडा़, "भाई, इस सबमें सरकार की ही चाल है"
मैने कहा "किसमें, पकौडे़ बनवाने में ?"
"अरे नहीं भाई, सब्जियों के दाम बढ़वाने में !", तिवारीजी ने अपनी झेंप मिटाई.
तिवारीजी की गर्वोक्ति सभी के सर पर चढ़ गयी थी. सही भी है, हज़ार दुखियारों की बिसात पर किसी एक सुखिया की खुशियाँ ठहाके लगाती है.
"और खाओ तुमसब दो-दो सब्जियाँ.. !", लालाभाई ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, "हमारे काबिल नेता भी कहते हैं.. कि तुम जैसे मरभुक्खों द्वारा अपने दोनों जून के भोजन में दो-दो सब्जियाँ खाने से इनके दाम बेतहाशा बढ़ने लगे हैं"
बैठे हुए सभीजनों ने बेबस-सी हँसी चिपोर दी. इस मुस्कुराहट में कितना कसैलापन था इसे बताने के लिए किसी शोध की आवश्यकता नहीं थी.
दूर कहीं मनोज कुमार की एक पुरानी फ़िल्म ’रोटी कपडा़ और मकान’ का गाना बजता हुआ सुनायी दिया....बाकी जो कुछ बचेयां मैंगाई मार गयी, मैंगाई मार गयी...
इतना समय गुजर जाने के बावज़ूद लोगों की समस्याओं में क्या अन्तर आया है, कुछ नहीं. बस समस्याओं की डिग्री बदल गयी है. तब के पाँच रुपये का रोना आज पाँच सौ रुपयों का रोना हो गया है.. . बस.
****
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय विन्ध्येश्वरी जी,
हास्य व्यंग पसंद आया. धन्यवाद.
आदरणीय अशोक जी, रचना पर अपने विचार रखने के लिये घन्यवाद.
आपने तो ठंढ़ के बाद के हालात के लिये डरा दिया है..हा हा हा///
सादर.
आदरणीय गणॆश भैया,
रचना पर अपने विचार देने के लिये घन्यवाद..
सादर.
आदरणीय शुभ्रांशु जी सादर, रोजमर्रा के खानपान की वस्तुओं के दाम बढ़ने से जन सामान्य की परेशानी में भी कई बार हास्य निकल आता है. आपने इसकी एक सुन्दर प्रस्तुति दी है. मगर मुझे तो लगता है भाई अभी इंटरवल हुआ है अभी तो ठंड का मौसम था प्याज की आवश्यकता बी नहीं थी और इसकी कमी भी बनावटी थी मगर मार्च अप्रेल में इसकी आवश्यकता भी अधिक होगी और स्टोर में इसकी शार्टेज भी होगी और आपको भी लिखने का एक और अवसर भी......हा हा हा अच्छी रचना पर बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
आदरणीय अखिलेश जी रचना पर अपने विचार रखने के लिये धन्यवाद.
सादर.
आदरणीय अन्न्पूर्णा जी. रचना पर अपने विचार देने के लिए धन्यवाद. रचना की घटनाओं पर हँसी आयी ये हास्य व्यंग्य रचनाकार के लिये संतोष की बात है.
सादर.
प्रिय शुभ्रांशु भाई, व्यंग आलेख में आपकी लेखनी गज़ब की चलती है, व्यंग के माध्यम से कई कई गम्भीर बातों का उल्लेख हुआ है और सबसे अंत की पक्ति ....
//इतना समय गुजर जाने के बावज़ूद लोगों की समस्याओं में क्या अन्तर आया है, कुछ नहीं. बस समस्याओं की डिग्री बदल गयी है. तब के पाँच रुपये का रोना आज पाँच सौ रुपयों का रोना हो गया है.. . बस.//
बिलकुल यथार्थ रख दिया है, बहुत बहुत बधाई, लिखते रहें |
आदरणीय सौरभ भैया, रचना पर विस्तृत विचार देने के लिये धन्यवाद.
बहुत दिनों बाद हास्य रचना के साथ आ रहा हूँ, माफ़ी चाहता हूँ.
रचना के पात्र हमारे आस पास के ही हैं. नव धनाड्य हर तरीके से धन कमाने की कोशिश करते हैं. तिवारी जी उसी तरह के पात्र हैं.
अन्य पात्रों को भी इसी तरह जिंदगी से जूझते हुये पायेंगे.
मेरी रचना के पात्र एक ही रहते हैं और उनका अपना एक विचार और स्वभाव है. पाठक भी अब तक शायद उन पात्रों से अपने आप को जोड लिया है.
कुछ पात्रों को ले कर अपनी बात कहना कहाँ तक सही है ? ये प्रश्न मेरे दिमाग में कई बार उठता है...
सादर.
धन्यवाद आदरणीय गिरिराज जी. रचना पर अपने विचार देने के लिये. पंक्ति विशेष पर ध्यान देने के लिये एक बार फ़िर से धन्यवाद.
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