आज कल न्यूजपेपर हों या टीवी का न्यूज चैनल, हर कहीं भ्रष्टाचार के डंक के साथ-साथ मच्छरों के डंक की खबरें भी प्रमुखता से दिख रही हैं. सभी को हिला रखा है. अभी तक मच्छरों से मलेरिया आदि का ही खतरा था, वो भी गरीबों या फिर गये-गुजरे, हाशिये पर छाँट दिये गये स्वप्नजीवी मध्यमवर्गियों को, जो टुटहे फर्राटों में पड़े ’एसी’ के सपने देखा करते थे. लेकिन मच्छर भी आज कल झोपड़पट्टी से निकल कर पॉश होने लगे हैं. इन्हें भी साफ पानी और धनाढ्यों का खून भाने लगा है. फ़िल्मों के एक बडे़ डायरेक्टर की डेंगू से मौत क्या हुई, डेंगू एकदम से स्टार मर्ज़ हो गया है. मन अशांत हो गया, मैं बाहर निकल गया.
बाहर भी चैन कहाँ. गुप्ता जी के मेन गेट पर तिवारी जी चीखम-चिल्ली पर उतारू दिखे. शुद्ध-शुद्ध कहिये तो इसे झगड़ना ही कहेंगे. बात ही कुछ ऐसी थी. गुप्ता जी न केवल अपने पड़ोसी तिवारी जी के लिये खतरनाक दुर्भावना बन गये थे बल्कि सारे मुहल्ले के लिये दुश्मन नं. एक दिख रहे थे. तभी तो गुप्ता जी का साथ देने कोई नहीं आ रहा था. लाला भाई भी, जो बात-बेबात तिवारीजी के कहे-करे पर चुटकियाँ लेने से बाज नहीं आते, आज तिवारी जी का ही साथ दे रहे थे. घोर आश्चर्य ! तिवारी जी की आवाज मानों आज पूरे मुहल्ले की आवाज हो गयी थी.
हुआ यह था कि गुप्ता जी के नये व्यवसाय ने सभी की नाक में दम कर दिया था. और बिजनेस भी क्या ? गोबर की खाद का !
गुप्ताजी अपने आप को कुछ अधिक ही प्रगतिशील, प्रयोगवादी समझते हैं. इसी खुशफ़हमी में ऑर्गेनिक खाद के नाम पर तमाम खटालों से सम्पर्क कर बगल की अपनी खाली पड़ी जमीन में गोबर जमा कराने लगे थे. अब सड़ रहे गोबर के अम्बार की गंध और उस पर पलने वाले मच्छरों से सारा मुहल्ला परेशान था. लेकिन गुप्ता जी ठहरे आधुनिक प्रयोगवादी. उनकी नज़र में मुहल्ले वाले अहमक कम पैसों में ’ऑर्गेनिक खाद’ के बिजनेस का निराला प्रयोग क्या समझें ?
ऐसा नहीं था कि यह उनका कोई पहला प्रयोग था. यह तो उनकी तथाकथित प्रगतिशीलता का एक नमूना भर था. उनके विचित्र विचारों और उटपटांग प्रयोगों से उनके घरवाले भी कम परेशान नहीं रहा करते हैं. लेकिन ’घर की बात घर में ही रहे’ के कारण सभी चुपचाप रहा करते हैं. परन्तु, जब से उनकी प्रयोगवादी प्रगतिशीलता का आतंक घर के बाहर निकलना शुरु हुआ है वो आतंकदेयी हो गये हैं. जी, आतंकदेयी, यानि आतंक देने वाला ! उनसे बात तक करने से लोग कतराते हैं.पता नहीं कब किसके सामने अपने प्रयोगवाद का ठस्का चेंप दें !
बात निकली ही है तो उनके प्रयोग की एक बानगी देता चलूँ. वो अपने बाथरुम और शौचालय में बल्ब आदि नहीं लगाने देते. तर्क ये कि, उन जगहों पर देखने के लिये आखिर ऐसा क्या कुछ होता है जिस पर इतनी तवज्जो दी जाय ? और तो और, विचारवान इतने कि अपने बडे़ बेटे को उन्होंने उसकी शादी के अगले दिन अलस्सुबह पाँच बजे ही चिल्ला-चिल्ला कर उठा दिया था. वह भी इस रौद्र धमकी के साथ कि आगे भी वो पूर्ववत सुबह-सुबह उठता रहेगा.. "शादी ही की है उसने, कोई बहुत प्रोजेक्ट हाथ में नहीं लेलिया है !"
उनकी इन हरकतों को अब ’प्रयोग’ का नाम देना सही रहेगा या नहीं यह आप ही फैसला करें.
आपको तनिक आश्चर्य नहीं होना चाहिये, यदि मैं कहूँ कि गुप्ता जी ’लिखने’ का शौक भी रखते हैं. अपने घर के नेमप्लेट से ले कर मुहल्ले की दीवारों पर अपनी खाद के विज्ञापन तक का मज़मून उन्होंने खुद ही तैयार किया हुआ है. दीवारों पर उनके अक्षर देखने में भले उपले-कण्डे से बेहतर न लगते हों. मगर जो है तो है. उनका साफ तर्क है कि जब विज्ञापन ही खाद के बारे में है तो उसे उसी तरह लिखा जाना चाहिये जिससे समझने वाले को अधिक जोर न लगाना पड़े. बताइये, किसे शामत आयी है कि कहे, उनके अक्षर खराब नहीं, महा गये-गुजरे हैं ?
इधर जब से मुहल्ले में कवि-सम्मेलन हुआ है, तब से कविता, ग़ज़ल आदि लिखने का उनका शौक भी उफ़न-उफ़न कर छलकता रहता है. लेकिन उनका ये शौक भी उनकी प्रयोगवादी धमक से बचा रहे ये कैसे हो सकता था !
शुरु-शुरु में उनका यही शौक मुझे उनके करीब लाया था. मैं भी तब नया-नया लिक्खाड़ था. वो भी बैठे-ठाले मेरे साथ तुक्कम-तुक्का भिडा़ लिया करते थे. हमारी उन ’कालजयी रचनाओं’ पर लाला भाई कस कर खिचाईं किया करते थे. लेकिन हम तो विश्व साहित्य रचने के डंक से छुतहे हुए भरे थे. मैंने तो छंद की मात्राओं और गजल की बह्र आदि पर ध्यान देना शुरु किया. लेकिन गुप्ता जी ठहरे आज़ाद पंछी.. नहीं-नहीं प्रयोगवादी ! वे कहाँ किसी की सुनने वाले थे ! प्रयोगवाद के नाम पर उन्होने वो-वो बवाल-कमाल मचाया कि सुनने-समझने वाले ओक-ओक कर उठे.
गुप्ताजी की रचनाओं में छंद अपनी मात्राओं से दूर और गजल अपनी बह्र से पूरी तरह बाहर रहा करती हैं. भाईजी ने पता नहीं कहाँ-कहाँ से ढूँढ-ढूँढ कर, यहाँ-वहाँ कभी-कभार की विशुद्ध साहित्यिक बेवकूफ़ियों को अपनी प्रायोगिक सोच का आधार बना लिया है. शब्द-प्रयोग, अर्थ-निर्णय और भाव-संप्रेषण में वे नित नये प्रयोग करते रहते हैं. इस तरह की अभिनव रचनाओं पर उनका तर्क यह हुआ करता है कि भावनाएँ तो बेरोक प्रवाह की तरह स्वतंत्र हुआ करती हैं, अबाध गतिशील हुआ करती हैं. तो फिर रचनाएँ क्यों बन्धनों के बोझ को झेलें ?
"रचनाकार अगर अनावश्यक टेक्निकलिटी में ही उलझा रहेगा तो लिखेगा क्या, ख़ाक ?"
सही कहिये तो वे छंदो और गजलों की नयी परिभाषा ही लिखने में भिड़े हैं, "आने वाला समय मेरे लिखे का मूल्यांकन करेगा.."
लाला भाई उनकी इसी बात पर भड़क जाया करते हैं.
वैसे लाला भाई भी आज के जमाने में एक हद तक आधुनिक और प्रयोगवादी रचनाकार हैं. लेकिन प्रयोग के नाम पर मूल विधा से खिलवाड़ उन्हे कत्तई नापसंद है. लालाभाई ने गुप्तजी से एक दफ़ा समझाते हुये सटीक उदाहरण दिया था, "हमारे देश के जाने-माने चित्रकार हुए थे. उन्होने किसी सज्जन के घर की दीवारों पर अपनी कला का नमूना पोत दिया. दीवारों की पुताई तो पेण्टर करते हैं. तो क्या वो चित्रकार महोदय पुताईवाले हो गये ? ऐसा भी नहीं कि उस पुताई-प्रदर्शन के बाद से उन चित्रकार महोदय ने घरों की पुताई का ठेका लेना शुरु कर दिया था. यह तो उस चित्रकार एक प्रयोग भर था. तो साहब,. प्रयोग का मतलब बस इतना भर होता है."
आगे लाला भाई ने फिर कहा, "कभी कभी ये भी सुनने को मिलता है कि कोई अमुक जानवर पेंटिग कर लेता है. इस तरह का ’प्रयोग’ अच्छे दामों में बिक भी जाता है. लेकिन उन चित्रों को कला का अधार नहीं बनाया जा सकता, न ? अगर कोई ऐसा ही करने पर उतारू हो जाय तो ? बेडा़ ही गर्क !!.. "
मगर गुप्ताजी को नहीं सुनना था, नहीं सुने.
लाला भाई ने झल्ला कर कहा, "..प्रयोगवादियों को तो बरदमूतन में भी कला का अभिनव रूप दीख जाता है.."
" ये बरदमूतन क्या बला है ?" गुप्ता जी ने अकचका कर पूछा.
लालाभाई ने हँसते हुये कहा, " कच्चे-पक्के रास्तों पर कभी बैलगाडी़ को जाते देखा है ? "
"सैकड़ों बार .." गुप्ता जी ने एक झटके में कहा.
"तो फ़िर सुनिये.." लालाभाई ने इत्मिनान से कहा, "बैल जब उस रास्ते पर अपनी लघु-लघु शंकाओं का निवारण करता चलता है तो लहराती हुई एक लम्बी लकीर बनती जाती है. इसे ही बरदमूतन कहते हैं.."
इस विस्तारित व्याख्या ने तो सबको बुक्का फाड़ कर हँसने का जैसे सूत्र ही दे दिया था.
लेकिन गुप्ता जी के चेहरे पर आयी बेसाख़्ता खीज किसी से छिपी नहीं. उनके प्रयोगों का ऐसा मूल्यांकन उन्हें बिल्कुल पसन्द नहीं आया था.
गुप्ता जी को गोबर में प्रयोग ही नहीं धन भी दिख रहा था. तिवारी जी ने नगरपालिका वालों से कम्प्लेन कर दिया. मच्छरों की बात पर पालिका के अधिकारी भी पूरे लावा-लश्कर के साथ आ धमके. आजकल करते गुप्ता जी का गोबर, यानि गुप्ताजी द्वारा जमा किया गया गोबर, कॉलोनी से विदा हो गया. तुर्रा ये कि सफ़ाई कराने की रसीद भी गुप्ता जी के नाम पर ही फट गयी. उनके तो होश ही फ़ाख्ता हो गये.
तिवारी जी जैसे शुद्ध भौतिकवादी ने संभावनाओं से भरे एक उभरते हुये बिजनेसमैन के बिजनेस-सोच की भ्रूण-हत्या करवा दी थी.
गोबर के उस पहाड़ के हटने से मुहल्लेवालों से अधिक प्रसन्न खुद गुप्ताजी के बच्चे हैं. आखिरकार, गुप्ताजी के अनर्गल प्रयोगों के लिये वे ही बेचारे तो गिनीपिग हुआ करते हैं और घर के बाहर वे ही बेचारे होते हैं मजाक का विषय..
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