2122, 2122, 2122, 2122, 2122, 2122, 2122
रात की काली सियाही जिंदगी में छा गई तो आप ही बतलाइये हम क्या करेंगे
चार दिन की चांदनी जब आदमी को भा गई तो आप ही समझाइये हम क्या करेंगे
जन्नतों के ख्वाब सारे टूटकर बिखरे हुए है, बस फ़रिश्ते रो रहे इस बेबसी को
दो जहाँ के सब उजालें तीरगी जो खा गई तो आप ही फरमाइये हम क्या करेंगे
वो थमा था, चैन से सोया हुआ था, सब तरह से बात भी वो तो हमारी मानता था
इक समंदर को नदी की तिश्नगी भरमा गई तो आप ही जतलाइये हम क्या करेंगे
खूब थे उसके उजालें, चाँद-तारों को भी पाले, जगमगाती कायनातों को हँसाती
आसमानों की ग़ज़ल से रौशनी शरमा गई तो आप ही कह जाइये हम क्या करेंगे
आपकी वो हरकतें, तहजीब की हद भूल के बस यों हंसी से डोलना जैसे बला हो
आपकी इन आदतों से आशिकी बल खा गई तो आप ही शरमाइये हम क्या करेंगे
जिंदगी की गर्द से सपने उठाकर रूह में जब वेदनाएं घुल गई फिर डायरी को,
प्रेम की पीड़ा मिली बस शायरी भी आ गई तो आप ही तर जाइये हम क्या करेंगे
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( मौलिक एवं अप्रकाशित ) मिथिलेश वामनकर, 29 नवम्बर, 2014
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बह्र-ए-रमल मुइज़ाफ़ी मुसम्मन सालिम (14-रुक्नी)
( अर्कान- फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन)
( वज़न- 2122, 2122, 2122, 2122, 2122, 2122, 2122 )
Comment
आदरणीय मिथिलेश जी लम्बी बहर को निभाना आसान नहीं होता, अच्छी ग़ज़ल निकाल ले गए, बहुत बहुत बधाई। तीसरे और पाँचवे शेर को तक़ाबुले रदीफ़ ऐब की नज़र से एक बार देख लीजिये।
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