वक़्ते-पैदाइश पे यूं
मेरा कोई मज़हब नहीं था
अगर था मैं,
फ़क़त इंसान था, इक रौशनी था
बनाया मैं गया मज़हब का दीवाना
कि ज़ुल्मत से भरा इंसानियत से हो के बेगाना
मुझे फिर फिर जनाया क्यूँ
कि मुझको क्यूँ बनाया यूं
पहनकर इक जनेऊ मैं बिरहमन हो गया यारो
हुआ खतना, पढ़ा कलमा, मुसलमिन हो गया यारों
कहा सबने कि मज़हब लिक्ख
दिया किरपान बन गया सिक्ख
कि बस ऐसे धरम की खाल को
मज़हब के कच्चे माल को
यूं ठोककर और पीटकर
खूं से सजाने वाला था
फ़ित्ना सिखाने वाला था
इक कारखाना कारगर
यारो कि मेरा अपना घर.…… अपना घर
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(मौलिक व अप्रकाशित) - मिथिलेश वामनकर
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Comment
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वक़्ते-पैदाइश पे यूं
मेरा कोई मज़हब नहीं था
अगर था मैं,
फ़क़त इंसान था, इक रौशनी था//
इस खूबसूरत रचना के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय मिथिलेश जी।
बस नमन और क्या ?
आदरणीया shalini kaushik जी रचना की सराहना और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार
पहनकर इक जनेऊ मैं बिरहमन हो गया यारो
हुआ खतना, पढ़ा कलमा, मुसलमिन हो गया यारों
कहा सबने कि मज़हब लिक्ख
दिया किरपान बन गया सिक्ख
kitna aasan hai dharm parivartan kash itna asan insan banna hota .nice feelings .
आदरणीय नरेन्द्र जी बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपका बहुत बहुत आभार धन्यवाद .. आपकी हौसलाअफजाई से कुछ और नज्में कह सकूंगा...
आ. मिथिलेश भाई , सुरुवाती संस्कार घर मे ही पड़्ते हैं और वही अंततः हमारा व्यवहार तय करता है ! सुन्दर न्ज़्म के लिये बधाई ।
आदरणीय सोमेश जी सही कहा आपने | आपको प्रस्तुति पसंद आई ..आभार धन्यवाद
तालीम घर से होती है फिर चाहे वो मजहब की हो या उसके मूल्यों की ,परिवेश और घर वालों की सोच से हम अपने अंदर धर्म को ढालते है|सुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई |
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