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सामयिक नव गीत: मचा कोहराम क्यों?... संजीव वर्मा 'सलिल

सामयिक नव गीत

मचा कोहराम क्यों?...

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(नक्सलवादियों द्वारा बंदी बनाये गये एक कलेक्टर को छुड़ाने के बदले शासन द्वारा ७ आतंकवादियों को छोड़ने और अन्य मांगें मंजूर करने की पृष्ठभूमि में प्रतिक्रिया)
अफसर पकड़ा गया
मचा कुहराम क्यों?...
*
आतंकी आतंक मचाते,
जन-गण प्राण बचा ना पाते.
नेता झूठे अश्रु बहाते.
समाचार अखबार बनाते.

आम आदमी सिसके
चैन हराम क्यों?...
*
मारे गये सिपाही अनगिन.
पड़े जान के लाले पल-छिन.
राजनीति ज़हरीली नागिन.
सत्ता-प्रीति कर रही ता-धिन.

रहे शहादत आम
जनों के नाम क्यों?...
*
कुछ नेता भी मारे जाएँ.
कुछ अफसर भी गोली खाएँ.
पत्रकार भी लहू बहायें.
व्यापारीगण चैन गंवाएं.

अमनपसंदों का हो
चैन हराम क्यों??...
*****

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Comment by sanjiv verma 'salil' on March 9, 2011 at 9:56am
आभार बागी जी. समानता का संवैधानिक मौलिक अधिकार होते हुए भी जान की कीमत अलग-अलग होना दुर्भाग्यपूर्ण है. दुख है की इसके खिलाफ किसी ने भी आवाज़ नहीं उठाई. किसी वकील को मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय में उताहना चाहिए.
निवेदन है की खून पुल्लिंग है.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 9, 2011 at 8:52am

बिलकुल सामयिक रचना है आचार्य जी, लहू की कीमत यहाँ अलग अलग होती है, कीमत इस बात से तय होती है की लहू है किसकी, आम जन की लहू पानी से सस्ता है और खास जन की लहू बहुत ही महंगा |

बहुत ही सुंदर और भाव पूर्ण नवगीत है , बधाई आचार्य जी |

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