अब नहीं करता मेरा मन ,
अपने घर जाने को ,
ना जाने क्यों ?
हालाँकि बदला कुछ खास नहीं है.
सिर्फ माता-पिता का साया उठा है ,
उस घर से , अलावा सब वैसा ही तो है,
भाई-भाभी, बच्चे , पडोसी सब.
पर पता नहीं अब क्यों नहीं ,
लगता मन ,
सोचता हूँ क्या खास था तब ,
दौड़ा चला आता था मैं ,
बेवजह छुट्टियां लेकर ,
अब छुट्टी हो तब भी ,
नहीं करता मेरा मन ,
अपने घर जाने को ,
ना जाने क्यों ?
अप्रकाशित -मौलिक
Comment
नवल किशोर जी
आपकी भावनाओं की मैं कद्र करता हूँ i आपने जो लिखा वह मेरा साथ भी घटित हुआ है i आपने बड़े संयम से उचित शब्द सन्योजन से अपनी भावनाओ को बाँधा है तभी यह छोटी रचना प्रभाव डालती है i कोशिश जारी रहे i सस्नेह i
धन्यवाद सर
आपने मनोभावों को सुन्दर शब्द दिए हैं भाई नवल किशोर जी, बधाई स्वीकारें
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