आत्मायें,
बिक चुकीं हैं,
बेचीं जा रहीं हैं,
कुछ असहाय,बिचारीं हैं,
कुछ म्रत्प्रायः,
कुछ मर चुकी हैं !
शरीर,
उन मृत आत्माओं का,
बोझ ढोए जा रहें हैं !
शब्द,
खो चुके अपना अर्थ,
उन अर्थहीन शब्दों से,
अच्छे दिनों के नारे लगा रहें हैं !
पैर,
चलना नहीं चाहते,
उन अनिच्छुक पैरों को ,
अच्छे दिनों की आस में,
कंटक पथों पर जबरन चला रहें हैं !
ईश्वर,
रंगमंच पर विद्यमान है,
नाटक वही है,
दृश्य पर दृश्य,
बदलते जा रहें हैं !
लोग,
घायल दिलों से,
सवाल कर रहें हैं,
अच्छे दिन कब आ रहें हैं ?
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
शिशिर जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद !
आपका बहुत - बहुत धन्यवाद ,आदरणीया सीमा तिवारी जी ! सादर
आदरणीय गिरिराज सर ,उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार ! सादर
आपका हार्दिक आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर, सादर !
आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी !
रचना पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी !.
आपकी प्रतिक्रिया से उत्साह मिला आपका बहुत - बहुत धन्यवाद ,आदरणीया प्रतिभा त्रिपाठी जी ! सादर
ईश्वर,
रंगमंच पर विद्यमान है,
नाटक वही है,
दृश्य पर दृश्य,
बदलते जा रहें हैं !
लोग,
घायल दिलों से,
सवाल कर रहें हैं,
अच्छे दिन कब आ रहें हैं ?........क्या बात है !!!! बहुत सुंदर.....
आदरणीय जवाहर जी ,हार्दिक आभार आपका , रचना अपने मर्म को समझाने में कामयाब रही शायद ! सादर !
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