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लघुकथा : केंचुल आवरण

हरिद्वार से कुल गुरू का आगमन क्या हुआ ...अलका के तो इसबार होश ही फाख्ता हो गये ।

तीन लडकियों को जनने का दर्द कोख में फिर जाग उठा था ।

कुलगुरु के अलौकिक सानिध्य ही उसके पुत्र प्राप्ति का एकमात्र विकल्प सुन कर वह स्तब्ध थी ।

पति की झूकी हुई नजर देख कर अलका का अंतर्मन कराह उठा था ।

सती सावित्री सीता ... माँ दुर्गा ..माँ चंडिका रूप धर कर दुःसाध्य - कार्य करने को आज आतुर थी ।

धर्म के आड़ में समस्त अनाचार जग जाहिर हो गये । ...... खोखले रिश्ते अपने केंचुल आवरण से अब बाहर निकल रहे थे ।

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 18, 2015 at 12:53pm

कांता रॉय जी

विषय पुराना हो चुका है . पर तारीफ इस बात की कि आपका  ट्रीटमेंट  बिलकुल नया और प्रभावपूर्ण है . इसलिये  कथा मार्मिक बन पड़ी है . सादर .

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 18, 2015 at 9:10am

धार्मिक ढकोसलों पर ,सुंदर लघुकथा. बधाई आदरणीया काँता जी

Comment by Pankaj Joshi on April 18, 2015 at 7:20am

सुंदर कथा।

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