आदमी की भूख में उछाल आ गया |
पत्थरों को घिस दिया पहाड़ खा गया |
रुख बदल के जल प्रवाह मोड़ ही दिया,
भूख ही थी आदमी कमाल पा गया |
तम निगल कर रौशनी तमाम कर दिया,
जब लगाई युक्ति तो विकास छा गया |
देखकर सबकुछ खुदा मगन दिखा वहाँ,
आदमी को आज का मचान भा गया |
तन मिला दुर्लभ इसे वृथा नहीं किया
जिन्दगी थोड़ी मगर उठान ला गया ||
( मौलिक अप्रकाशित )
Comment
उत्साह बढाती प्रतिक्रिया का बहुत बहुत धन्यवाद
शिज्जु "शकूर" जी सादर !
आदरणीया छाया जी अच्छा प्रयास है बहुत बहुत बधाई आपको
आपकी उपस्थिति का बहुत बहुत शुक्रिया !
आदरणीय गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी सादर
उत्साह वर्धन हेतु हार्दिक धन्यवाद आदरणीय गिरिराज भंडारी जी .... सादर
आदरणीया छाया जी , प्रयास बहुत अच्छा है , हार्दिक बधाइयाँ ॥
छाया जी
मेरी नजर में शेर के दोनों मिसरो में रब्त की कंमी है . बाकी गुनीजन बताएं ,
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