सब कुछ
है तेरा
तुझ पर, तेरे कारण ही
और तेरे ही लिए हैं
अपने दामन में पाले हैं तूने
समान, असमान भाव से
कांटे भी, फूल भी
देव और दानव
जल भी तेरा, थल भी
मरुस्थल और तेरे ही है पर्वत
तेरी ही नदियाँ
तेरा ही आश्रय है, सागर को
अश्विन से फाल्गुन तक
सिकुड़ती है, तू
ज्येष्ठ की दहक में
तपती और पिघलती रही
अथाह सहनशीलता है, तुझमे
इस तरह सिकुड़ने और
पिघलने के बाद
बस! एक अपेक्षा है तेरी
कोई बरस जाए तुझ पर
भर दे, तुझमें
इतनी तृप्ति और नमी
कि, तू संतृप्त होकर
बिखेर दे सारे जहाँ में
खुशियाँ ही खुशियाँ
सर्वस्व है तू
फिर भी, हमेशा की तरह
इस वर्ष भी
अपेक्षा है तुझे...!
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
आपकी विस्तृत स्नेहिल प्रतिक्रिया व् रचना की सराहना पाकर, बहुत संबल मिला ,आदरणीया कांता जी. आपका ह्रदय से आभारी हूँ
सादर!
आदरणीय विजय जी, आपको कविता अच्छी लगी, लेखनकर्म सार्थक हुआ. आपका ह्रदय से आभारी हूँ
सादर!
आदरणीय समर साहब, कविता पर आपकी उपस्थिति व् सराहना हेतु आपका हार्दिक आभार
सादर!
आपकी लघु-कथा तो अच्छी लगती ही हैं, कविता भी अच्छी लगी।
आदरणीय डा.विजय जी, रचना आपका आशीर्वाद पाकर, धन्य हुई. आपका ह्रदय से आभारी हूँ
सादर!
आदरणीय गिरिराज जी, अतुकांत पर आपकी स्वीकारोक्ति , मेरा मनोबल बड़ा रही है. आपकी सराहना के लिए ह्रदय से आभारी हूँ.यह अतुकांत मैंने लाइव महोत्सव अंक- ५५ में प्रस्तुति हेतु कोशिश की थी किन्तु नेट की समस्या रहते ,मैं प्रस्तुत नहीं कर पाया.
सादर!
आदरणीय मनोज जी, रचना पर आपकी सराहना हेतु आपका हार्दिक आभार
सादर!
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