वो कहना चाहती थी कि वो देवी नही है वो तो मुन्नी है । उसे रानो और शन्नो के साथ खेलने जाना था बाहर ।
"ये लोग चुनरी ओढाय उसे कहाँ बिठाय दिये हैं । माँ , मै देवी नही रे , तेरी मुन्नी हूँ .. काहे ना चिन्हत मोरा के । "
दर्शन की रेलम पेल , मां -बापू चढावे के रकम की खनक समेटने में लगे हैं । गाँव के माइक वाले ,पंडित ,हलवाई सबके भाग सँवर गये ।
"अब तो देवी का समाधिस्थ होना परम जरूरी हो गया है ।" -बिसेसर गहरी सोच में डूबा हुआ था ।
मौलिक और अप्रकाशित
कान्ता राॅय
भोपाल
Comment
अंधविश्वास और लालच के ताने बाने में विवशता की ढाल वाली कुरीति पर प्रभावकारी लघुकथा. यद्यपि विषय पुराना और जाना पहचाना है किताबों/फिल्मों में इस विषय पर बहुत पढ़ा और देखा है फिर भी विषय का पुनर्पाठ अपना प्रभाव छोड़ता है
आदरणीया कांता जी बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर
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