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ये हैं मरासिम उसकी मेरी ही निगाह के
तामीरे-कायनात है जिसका ग़वाह के
..
सजदा करूँ मैं दर पे तेरी गाह गाह के
पाया खुदा को मैंने तो तुमको ही चाह के
..
हाँ इस फ़कीरी में भी है रुतबा-ए-शाह के
यारब मै तो हूँ साए में तेरी निगाह के
..
जो वो फ़रिश्ता गुजरे तो पा खुद-ब-खुद लें चूम
बिखरे पडे हैं फूल से हम उसकी राह के
..
छूटा चुराके दिलको वबाले-जहाँ से मैं
ऐ “जान” हम हुए हैं मुरीद इस गुनाह के
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मौलिक व् अप्रकाशित (c) "जान" गोरखपुरी
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Comment
अन्य अशआर पर मेरी टिप्पणी ..........
सजदा करूँ मैं दर पे तेरी गाह गाह के
पाया खुदा को मैंने तो तुमको ही चाह के
गाह यदि स्थान के अर्थ में प्रयोग होता है तो प्रत्यय अनुसार प्रयोग होता है
जैसे - चारागाह, आरामगाह आदि ...
इसे संज्ञा की तरह प्रयोग नहीं करते हैं और गिरिराज जी ने भी स्पष्ट किया है कि गाह-गाह लिखने पर कभी-कभी, यदा-कदा अर्थ ही प्राप्त होगा, हईफां लगाने न लगाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा ...
हाँ इस फ़कीरी में भी है रुतबा-ए-शाह के
यारब मै तो हूँ साए में तेरी निगाह के
के शब्द भर्ती है का इसे स्पष्ट किया जा चुका है
इसे ऐसे ठीक कर सकते हैं = हाँ इस फ़कीरी में भी मिले रुतबे शाह के
जो वो फ़रिश्ता गुजरे तो पा खुद-ब-खुद लें चूम
बिखरे पडे हैं फूल से हम उसकी राह के.................... भाषा व्याकरण अनुसार .. राह के सही नहीं है राह में होना चाहिए,
जैसे - पड़े हैं उसकी राह में
यदि रदीफ़ को निभाना है तो शेर को नए तरीके से कहना पड़ेगा ...
छूटा चुराके दिलको वबाले-जहाँ से मैं
ऐ “जान” हम हुए हैं मुरीद इस गुनाह के
आपको पता ही होगा अपने लिए मैं और हम का संबोधन एक साथ करने से शुतुर्गुरबा दोष होता है
अब ज़रा मुझे अर्थ समझाईये
// दिल को चुरा के मैं इस वबाले जहाँ से छूटा, इ जान हम इस गुनाह के मुरीद हो गए हैं //
भाई इसका क्या मतलब हुआ ???
भाई अब आप अपने मतला के जिन अर्थों के साथ प्रस्तुत हुए हैं वह भी अस्पष्ट है ....
गौर करें ....
ये हैं मरासिम उसकी मेरी ही निगाह के = ये रिश्ते उसकी मेरी निगाह के ही हैं
तामीरे-कायनात है जिसका ग़वाह के = जिसका गवाह सृष्टि की रचना है + के
सृष्टि की रचना को तो आपने गवाह बना लिया ... अब बताईये
यह सारे मरासिम=रस्में(सृष्टि का बनना,चलना,आदि सारे नियम क़ायदे) उसकी और मेरी ही (जोर देकर कहा गया ) निगाह के मिलने के प्रतिकिया स्वरूप है ..जिसका गवाह ( सबूत के रूप में) कायनात का निर्माण है हमारे सामने मौजूद है जो निरंतर चल भी रहा है! //यहाँ गवाह का प्रयोग सबूत के रूप में है या प्रत्यक्ष-दृष्टा के रूप मैं है जैसे- ख़ुदा गवाह है ..रास्ते गवाह हैं//
इस अर्थ तक कैसे पहुंचा जाए ....
आपने लिखा है तो कुछ सोच कर ही लिखा होगा मगर कोई एक स्पष्ट अर्थ तो निकले ....
आ० कृष्णा
हम जानते और मानते हैं कि आपमें प्रभुत सम्भावनाएं है पर अधिक स्पष्टीकरण देने से बचें क्योंकि जोआप कहते है उसे सभी अनुभवी यहाँ तक कि मेरा जैसा अनाडी भी जानता है , इसीलये अटपटा लगने पर भी मैंने आपके मतले पर कुछ नहीं कहा . हाँ कभी कभी सलाहें भी अटपटी लगती हैं पर कबीर जी कह गए है - सार सार को गहि रहे थोथा डे उडाय. सस्नेह .
हिन्दी मे भी गाह एक शब्द है - जिसका अर्थ देख के बता रहा हूँ ----गहन, दुर्गम ,मगर , ग्राहक , धात । शब्द कोश -- आदर्श हिन्दी , पेज न. 200 दूसरा पैरा ,ऊपर से तीसरा शब्द ।
आदरणीय - गाह गाह का अर्थ केवल और केवल , कभी कभी ( यदा कदा ) होता है , लगता है अब आपको आपनी गज़ल मे किसी का कुछ कहाना अच्छा नहीं लगता ?
रुतबा-ए-शाह = शाह का रुतबा , रुतबा-ए-शाह के --
हाँ इस फ़कीरी में भी है शाह का रुतबा के -- अब इसका अर्थ बतयें ?
गाह गाह का प्रयोग जगह जगह के रूप में हुआ है!
अगर गाह गाह के बीच में ( - ) भी होता तो गाह-गाह का अर्थ कभी-कभी हो जाता! मुझे लगता है आ० गिरिराज सर का ध्यान ( - ) पर नही गया !इसी बात को वीनस सर ने अपनी टिप्पणी में इंगित किया है!
सभी आ० जनों की बातों और मार्गदर्शन का सम्मान करते हुए मैंने सार्थक चर्चा की दृष्टी से अपनी अपनी बात रक्खी है, निश्चय ही सुधार और सीखने की बहुत गुंजाइश हमेशा बनी रहती है! आ० जनों से गज़ल पर आगे मार्गदर्शन निवेदित है!
ये हैं मरासिम उसकी मेरी ही निगाह के........
तामीरे-कायनात है जिसका ग़वाह के ..................
आपके बताये अनुसार आप मतला कहते समय जो भाव लाना चाहते थे = //उसकी और मेरी निगाह का वही रिश्ता (मरासिम) है जो कायनात की तामीर करने वालों (आदम और हव्वा) के बीच था ....//
आ० यहाँ पर मेरे कहने का तात्पर्य यह था के.....यह सारे मरासिम=रस्में(सृष्टि का बनना,चलना,आदि सारे नियम क़ायदे) उसकी और मेरी ही (जोर देकर कहा गया ) निगाह के मिलने के प्रतिकिया स्वरूप है ..जिसका गवाह ( सबूत के रूप में) कायनात का निर्माण है हमारे सामने मौजूद है जो निरंतर चल भी रहा है! //यहाँ गवाह का प्रयोग सबूत के रूप में है या प्रत्यक्ष-दृष्टा के रूप मैं है जैसे- ख़ुदा गवाह है ..रास्ते गवाह हैं//
भाई मनोज को मैंने यह बात इस तरह से बहुत कुछ आदम और हव्वा की कथा के संदर्भ में समझने के लिए कहा था जिससे कुछ हद तक समझने में आसानी हो जाती न की आदम हव्वा की कथा को ही यहाँ रखना मेरा उद्देश्य था!
//शब्द मरासिम पर लागू हुआ है जो कि छिटक कर बहुत दूर चला गया है जिसके कारण दिक्कत हो रही है// ही शब्द का प्रयोग बात पर जोर देने के लिए हुआ है जैसा की मैंने ऊपर लिखा है!
बाकि बातें भी मेरे ख्याल से ऊपर की पंक्तियों से स्पष्ट हो रही है!
अब आते है ''के'' शब्द के इस्तेमाल पर...
बहुत ही सीधे तरीके से इसे समझा जा सकता है...
आम बोलचाल की भाषा में उदा० देखिये- १)मेरा ये कहना है के >> 'कि' को ''के'' के रूप में आम बोल चाल की भाषा में प्रयोग किया जाता है !
२) मैंने हाथ धोके खाना खाया!
बच्चा उठके बैठ गया! >> यहाँ 'के' का प्रयोग एक योजक के रूप में भी और एक प्रत्यय के रूप में भी हो रहा है!
३) सानी में कुछ जगह 'के' 'का' का अर्थ लिए हुए है!
ऐसा प्रयोग भी अकसर देखने को मिल जाता है...जैसे- क्या मायने हैं आपकी बात के?? यानि आपकी बात का क्या अर्थ है?
>>गजल के शेरों में मिसरा-ए-उला और सानी के बीच में 'के' का प्रयोग़ कहीं पर १) 'कि' को ''के'' के रूप तथा कहीं पे २)योजक के रूप में हुआ है!
>>सानी में 'के' का प्रयोग़ कहीं पे प्रत्यय के रूप में हुआ है तो कहीं पे के' 'का' का अर्थ लिए हुए है!
आ० वीनस सर गज़ल पर आपकी उपस्थिति और मार्गदर्शन का हमेशा इन्तजार रहता है..गजल पर आपके विस्तृत मार्गदर्शन के लिए हृदय से आभारी हूँ आदरणीय...आप जिस सहृदयता से हम जैसे नवागुन्तकों का मार्गदर्शन करते है उसे मेरा नमन है!
आ० गज़ल पर विनम्रता के साथ मैं अपनी बात आगे रखता हूँ......आगे मार्गदर्शन निवेदित है...
परम आ० गिरिराज सर! गज़ल पर मार्गदर्शन,समीक्षा के लिए हार्दिक आभार! आ० इसी प्रकार स्नेह व् मार्गदर्शन बनाये रक्खे!
जिन-जिन बिन्दुओं पर आपने ध्यान दिलाया है,आगे से उन पर और ध्यान दूँगा..सभी बिन्दुओ पर चिंतन-मनन विचार किया है,उन पर विनम्र भाव से सादर मैं अपने विचार आगे रखने का प्रयास करता हूँ.....
आ० shyam नारायण वर्मा जी आत्मीय प्रसंशा हेतु हार्दिक आभार!
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