२१२ १२१२ २२
खुशबू ओढ़ कर निकलता है
फूल जैसे कोई चलता है
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रास्ते महकते हैं सारे
जिस भी सिम्त वो टहलता है
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हुस्न आफ़रीं कि क्या कहने
जो भी देखे हाथ मलता है
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गो धनुक है पैरहन उसका (धनुक=इन्द्रधनुष)
सात रंग में वो ढलता है
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रंगा मुझको जाफ़रानी यूँ (जाफ़रानी=केसरिया)
रात-दिन चराग़ जलता है
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इश्क मुझको भी है तुमको भी
वख्त मायने बदलता है
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दोस्त अब कहाँ वो पहले से?
मिलके दिल कहाँ उछलता है?
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अब के हम भी चल बदल जायें
सिक्का कब पुराना चलता है ?
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है फिजा में जह्र वो घोला
दुपहर आदमी उबलता है
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आ लगायें पेंड उजाले के
वो सदाकतें ही फलता है
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जब तलक न बोस हों दो शय
रौशनी का पर न जलता है
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मौलिक व् अप्रकाशित (c)‘जान’ गोरखपुरी
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Comment
आ० भाई केवल प्रसाद जी आपकी आत्मीय प्रसंशा ने बहुत उर्जा दी है,प्रयास रहेगा इसी प्रकार आपका स्नेह पाता रहूँ!हार्दिक आभार! सादर.
आ० कांता जी आप जैसी सुलझी हुई साहित्यसेविका से गज़ल पर मान मिलना बहुत उत्साहित कर रहा है,हार्दिक आभार!सादर!
// रंगा मुझको जाफ़रानी यूँ
रात-दिन चराग़ जलता है //------पूरी की पूरी गज़ल ज़ाफरानी खुशुबू से गमक उठा. शांनदार गज़ल के लिये विशेष बधाई. सादर, आ0 जान भाई जी.
आ० विजय सर! गजल पर आपकी हौसलाफजाई सदा प्रेरणा देती है,आ० स्नेह बनाये रक्खे!हर्दिक आभार!सादर!
आ० 'समर' सर गजल पर आपका अनुमोदन मिलना अपने आप में उपलब्धि है,हार्दिक आभार सर जी! आ० आपके मार्गदर्शन का भी मै आकांछी हूँ!सादर !
आ० नरेन्द्र सिंह जी रचना को मान देकर हौसलाफजाई करने के लिए हार्दिक आभार!सादर!
आ० गोपाल सर आपकी भूरि-भूरि प्रसंशा और स्नेह पाकर रोमांचित हूँ,मन झूम झूम गया है,आ० मै पूरा प्रयास करूँगा कि इसी प्रकार रचनाओं का स्तर बनाये रक्खूँ और आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतर सकूँ! आ० अपना स्नेह व् आशीर्वाद बनाये रक्खें!!
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