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अब जो जायेंगे उस गली तो सबा छेड़ेगी
वारे उल्फ़त! मुझको मेरी ही वफ़ा छेड़ेगी
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जिसको आँखों में भरके फिरते थे हम इतराते
हाय जालिम तेरी कसम वो अदा छेड़ेगी
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जो गुजरते हर एक दर पे थी हमने मांगी
राह में मिलके मुझसे वो हर दुआ छेड़ेगी
..
वो जो बातें ख्यालों की ही रह गई बस होकर
बेसबब बेवख्त आ मुद्दा बारहा छेड़ेगी
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सुनते ही जिसको तुम चले आते थे दौड़े
हाँ फजाओ में गूंजती वो सदा छेड़ेगी
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चूम के हाथ अपने हवाओं के बोसे देना
अब तो सांसों की आती जाती हवा छेड़ेगी
..
था नजर आया जिनमे वो ’जान’ सौ रंगों में
अरगनी से लिपटी पड़ी वो कबा छेड़ेगी
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मौलिक व् अप्रकाशित (c)"जान" गोरखपुरी
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Comment
सादर आभार आ० वीनस सर!आपकी उपस्थिति से सीखने की लगन में ज्वार आ जाता है!
ये गजल अस्ल में ४-५ साल पुरानी रचना का परिवर्तित रूप है दिल के बहुत करीब थी तो बहर में रखने का प्रयास किया था!
सुन्दर प्रयास है
आ० भाई केवल प्रसाद जी सादर आभार!
खूबसुरत गज़ल के लिये ढेरो दाद कुबूल करे. आ0 जान भाई जी.
आदरणीय कृष्णा भाई , बहुत बढ़िया गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।
आ० shree सुनील जी तहेदिल से शुक्रिया!!..मेरे ख्याल से 'जाऊँगा' व्याकरण की दृष्टी से ज्यादा सही है,पर गायन में ''जायेंगे'' ज्यादा फब रहा है! सादर!
हार्दिक आभार आ० मिथिलेश सर!मार्गदर्शन बनाये रक्खे आदरणीय!
सादर!
आभार भाई महर्षि त्रिपाठी! सस्नेह!
हार्दिक आभार आ० महिमा जी!
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