२२१२ २२१२ २२
फ़रियाद ये मेरी सुनो कोई
दो इश्क में मुझको डबो कोई
..
सात आसमां पार उनका गर है शह्र
कू-ए-सनम ही ले चलो कोई
..
है दोजखो जन्नत मुहब्बत में
आशिक हो पर शायर न हो कोई
..
जाने गज़ल तुम मुझको दो थपकी
बरसों न पाया मुझमें सो कोई
..
‘जान’ आखिरी वख्त अपना जाने कौन?
लो प्रीत के मनके पिरो कोई
.
जीने की ख्वाहिश फिर न जाग उट्ठे
मरता हूँ नाम उस का न लो कोई
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मौलिक व् अप्रकाशित (c)”जान” गोरखपुरी
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Comment
परम आदरणीय गोपाल सर!आपका अनुमोदन पाकर मन बहुत आश्वस्त हुआ!रचनाकर्म सार्थक हुआ! आभार सर!
हार्दिक आभार आदरणीय नरेन्द्रसिंह जी!
प्रिय कृष्णा
बेहतरीन . सुन्दर .
सुन्दर प्रस्तुति हुई है हार्दिक बधाई
आदरणीय गिरिराज सर! आपकी प्रशंसा पाकर गज़ल मुकम्मल हो गयी! हार्दिक आभार आदरणीय!
उत्साहवर्धन के लिए तहेदिल से शुक्रिया! आ० विनय सरजी!
आदरणीय कृषणा भाई , लाजवाब हर शे र बेहतरीन ! हार्दिक बधाई आपको ।
// जाने गज़ल तुम मुझको दो थपकी
बरसों न पाया मुझमें सो कोई // , वाह , वाह , बहुत उम्दा पंक्तियाँ । बहुत बहुत बधाई आदरणीय जान गोरखपुरी जी इस ग़ज़ल के लिए.
अंतिम शेर के सम्बन्ध में मेरे मन में कुछ संशय है उसके निवारण के लिए गुनीजनो से निवेदन हैं...
मिसरा-ए-उला में अलिफ़ वस्ल //जाग + उट्ठे= जागुट्+ठे// करना क्या सही होगा??
सानी में //मरता हूँ// का प्रयोग क्या उचित हैं??
हार्दिक आभार आ० मिथिलेश सर!
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