२१२ २१२२ २१२२
आग पर आप भी इक दिन चलेंगे
मेरे अहसास जब तुम में उगेंगे
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फूल सा तन महकने ये लगेगा
याद में रातदिन जब दिल जलेंगें
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चाँद सा रूप निखरेगा सुनहरा
इश्क की धूप में गर जो तपेंगें
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आइना बातें भी करने लगेगा
यूँ घड़ी दो घड़ी पे गर सजेंगे
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रातभर रतजगे आँखें करेंगी
सुबहों-शाम आप भी रस्ता तकेंगे
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मौलिक व् अप्रकाशित (c) 'जान' गोरखपुरी
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Comment
मेरी बात को मान देने के लिए शुक्रिया आ० भाई मनोज ज़ी!
आ० भाई मनोज जी,आपने बहर निभाने के लिए भावपक्ष से समझौते की बात किन आधार पर कही है मुझे समझ नही आया...मै यह निश्चित तौर पर कह सकता हूँ की भले बहर में कई बार तबदीली करूं,पर रचना/शेर के भाव से मुझे समझौता करना कत्तई पसंद नही है!अगर बहर में मैं भाव नही रख पाऊं तो मैं मुक्त रचना करना अधिक श्रेयस्कर समझता हूँ!
प्रस्तुत गज़ल में मतला देखिये............
आग पर आप भी इक दिन चलेंगे
मेरे अहसास जब तुम में उगेंगे..............................यह सहज जैसे हुआ वैसा ही लिखा है!
बहर को मैं शब्द बढ़ाकर २१२२ /२१२२/ २१२२ भी कर सकता था! पर नही किया क्युकी भाव प्रभावित होता!
इसी सन्दर्भ में ये बात कहना चाहूँगा कि कुछ समय पूर्व मैंने मंच पर एक गज़ल ''मरासिम'' रक्खी थी! उस पर आ० जनों ने कई त्रुटिया की ओर मेरा ध्यान दिलाया! जिनपर सुधार करना मैंने निश्चय किया...पर सुधार करने के क्रम में भाव परिवर्तन के कारन मै अभी तक उसे सुधारकार्य पूर्ण नही कर पाया हूँ! चाहता तो अन्य भाव के साथ मै दुसरे शेर कहकर गज़ल की त्रुटियाँ दूर कर लेता!
सादर!
सादर आभार आ० मिथिलेश सर!
आदरणीय कृष्ण भाई जी बढ़िया ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं
आइना बातें भी करने लगेगा
यूँ घड़ी दो घड़ी पे गर सजेंगे
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