इस बार वह अकेली मायके आई थी. वो जब भी आती, बाबा से लिपट जाती. बाबा खूब दुलारते. बाबा की परी थी वो.
लेकिन इस बार बाबा बस ससुराल वालों की खैर-खबर पूछकर बाहर चले गए. माँ ने भी उसकी पसंद का भोजन पकाया था. तृप्त तो हो गई वो, मगर उसे घर के माहौल में आये बदलाव को भांपते देर न लगी. आज पूरे पंद्रह दिन हो गए थे उसे यहाँ आये हुए. बाबा बेटे की बेरोजगारी और आवारागर्दी से अब अधिक ही परेशान दिखने लगे थे. उसकी उलटी सीधी मांगों को इसी भय से मान लेते कि कहीं कुछ कर न ले. उसे भी भइया को देख कर बहुत दुःख होता था. मगर कभी कुछ कहती भी तो बाबा झिड़क देते – “आखिर औलाद है मेरी.”
इतना कहने के बाद ऐसी नज़रों से उसकी तरफ देखते कि बस वह सहम के चुप रह जाती.
लेकिन उसने अब ठान लिया था कि बाबा को वो ‘बाबा की परी’ बन कर समझाएगी. सुबह बाबा बाहर जाने के लिए तैयार बैठे थे.
“बाबा, ऐसे कब तक चलेगा. घर का माहौल .........अगर यही हाल.............. इससे तो अच्छा मैं यहाँ से चली जाऊं.....”
“कब की टिकट करानी है?”
बाबा के इस सवाल ने ‘बाबा की परी’ को आसमान से उठा कर सीधा जमीन पर पटक दिया था.
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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Comment
हार्दिक आभार सर
पूरे घटनाक्रम को 'प्वाइण्ट ऑफ़ टाइम' में लाने के लिए ’आज’ का प्रयोग आवश्यक लगा. वर्ना लघुकथा अपने कालखण्ड में बिखरी हुई लग रही थी. इसी क्रम में कहाँ ’बेटा’ शब्द का इस्तमाल कहाँ और कब करना है, तथा, कैसे ’भइया’ शब्द को इन्फ्यूज करना है, इसके प्रति लेखकीय संचेतना रचना को अधिक संप्रेषणीय बनाने के साथ-साथ पाठकों से बातचीत करती हुई प्रतीत होती है.
//बाबा के जवाब में ही बहुत बड़ा सवाल था जिसने ‘बाबा की परी’ को आसमान से उठा कर सीधा जमीन पर पटक दिया //
हाँ देखिये, लघुकथा के संशोधित स्वरूप में जो लेखकीय वाक्य है वह पंच लाइन के साथ-साथ लघुकथा की नायिका की स्थिति को बिना अधिक हील-हवाला दिये अभिव्यक्त कर देता है.
आपको संशोधन सार्थक लगा, परस्पर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया बलवती हुई
इस अत्यंत संवेदनशील लघुकथा के लिए पुनः बधाइयाँ और शुभकामनाएँ
आदरणीय सौराभ सर, आपकी प्रतिक्रिया आई तो लगा- //प्रभुजी सुन ली बिनती हमार//
'आज' शब्द ने कथा में जबरदस्त प्रवाह ला दिया. //आज पूरे पंद्रह दिन हो गए थे उसे यहाँ आये हुए.//
//अब अधिक ही परेशान दिखने लगे थे.// -- बाबा परेशान थे लेकिन उसे भी दिखने लगे तभी कथा आगे बढ़ेगी.
//उसे भी भइया को देख कर बहुत दुःख होता था.// कथा के मर्म को अभिव्यक्त करने के लिए 'भइया' के लिए संवेदनशीलता व्यक्त करना बहुत जरुरी है.
//लेकिन उसने अब ठान लिया था कि बाबा को वो ‘बाबा की परी’ बन कर समझाएगी. // वाक्य संयोजन अधिक सहज और सुगठित हो गया.
//बाबा के इस सवाल ने ‘बाबा की परी’ को आसमान से उठा कर सीधा जमीन पर पटक दिया था.//
बाबा के जवाब में ही बहुत बड़ा सवाल था जिसने ‘बाबा की परी’ को आसमान से उठा कर सीधा जमीन पर पटक दिया
आदरणीय सौरभ सर, लघुकथा पर आपके मार्गदर्शन के लिए आभार. नमन
इस बार वह अकेली मायके आई थी. वो जब भी आती, बाबा से लिपट जाती. बाबा खूब दुलारते. बाबा की परी थी वो.
लेकिन इस बार बाबा बस ससुराल वालों की खैर-खबर पूछकर बाहर चले गए. माँ ने भी उसकी पसंद का भोजन पकाया था. तृप्त तो हो गई वो, मगर उसे घर के माहौल में आये बदलाव को भांपते देर न लगी. आज पूरे पंद्रह दिन हो गए थे उसे यहाँ आये हुए. बाबा बेटे की बेरोजगारी और आवारागर्दी से अब अधिक ही परेशान दिखने लगे थे. उसकी उलटी सीधी मांगों को इसी भय से मान लेते कि कहीं कुछ कर न ले. उसे भी भइया को देख कर बहुत दुःख होता था. मगर कभी कुछ कहती भी तो बाबा झिड़क देते – “आखिर औलाद है मेरी.”
इतना कहने के बाद ऐसी नज़रों से उसकी तरफ देखते कि बस वह सहम के चुप रह जाती.
लेकिन उसने अब ठान लिया था कि बाबा को वो ‘बाबा की परी’ बन कर समझाएगी. सुबह बाबा बाहर जाने के लिए तैयार बैठे थे.
“बाबा, ऐसे कब तक चलेगा. घर का माहौल .........अगर यही हाल.............. इससे तो अच्छा मैं यहाँ से चली जाऊं.....”
“कब की टिकट करानी है?”
बाबा के इस सवाल ने ‘बाबा की परी’ को आसमान से उठा कर सीधा जमीन पर पटक दिया था.
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मैंने आपकी प्रस्तुति को तनिक संशोधित किया है. प्रवाह को बनाये रखते हुए लघुकथा की कहन और सान्द्र हो कर निखरे. ऐसा इस विश्वास के साथ कि ऐसा प्रयास आपको विन्दुवत करेगा.
कथा के तथ्य, कथ्य और मर्म पर कुछ भी क्या कहना ! यदि संवेदित न करती होती तो प्रयास ही न करता.
आप सतत प्रयासरत रहे. वस्तुतः ऐसी ही संवेदनशीलता की आवश्यकता है.
शुभ-शुभ
आदरणीय योगराज सर के आलेख "लघुकथा लेखन प्रक्रिया" एवं "लघुकथा की कक्षा" की चर्चा के बाद लघुकथा लिखने का प्रयास किया है. यद्यपि इस प्रयास में गुंजाइश अवश्य है किन्तु मैं वहां तक पहुँच नहीं पा रहा हूँ. गुणीजनों से मार्गदर्शन का निवेदन है.
आदरणीय तेजवीर सिंह जी लघुकथा पर आपकी सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिया हार्दिक आभार. आप जैसे लघुकथाकार से प्रशंसा पाना मेरे लिए बड़ी बात है.
आदरणीया अर्चना त्रिपाठी जी,
//आज भी बेटी ऐसी ही परी हैं जिसके पंख कतर दिए जाते हैं।और छोटी छोटी बातों में अहसास कराया जाता हैं की वह पराई हैं// लघुकथा के मर्म तक पहुँच कर कथ्य को विस्तार देती इस सटीक प्रतिक्रिया और सराहना के लिए हार्दिक आभार.
आदरणीय बड़े भाई धमेंद्र जी, आपको यह प्रयास पसंद आया जानकार आश्वस्त हूँ सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आदरणीया प्रतिभा जी
// पहले परियों को पंख दे दिए जाते हैं उड़ने के लिए और फिर कभी भी बेदर्दी से पंखों को काट दिया जाता है I// लघुकथा के मर्म को विस्तार देती इस सटीक प्रतिक्रिया और सराहना के लिए हार्दिक आभार.
आदरणीया ज्योत्स्ना जी लघुकथा के प्रयास पर आत्मीय प्रशंसा और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
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