बंद मुठियां भींचती है
नसें लहू को वापिस खींचती है
...करोड़ों का जनपद भीष्म हो गया है
बस ताज ही के प्रति वफादारी बची है
अनाचार दुराचार दिग्विजयी हो गया है
शब्द प्रश्नचिन्ह हो गए हैं
भिन्न के लिए अर्थ भिन्न हो गए हैं
न्याय की देवी सो गई है
पलड़ों की बराबरी खो गयी है
सभा सजी है कर्णधारों से
चीखें चीख चीखती दीवारों से
दया और दरिंदगी आमने सामने हैं
भीष्म विदुर होने के अब क्या मायने हैं
तर्क की धारदार तलवार है
द्रौपदी बलि के लिए तैयार है
आततायी कुतर्क से संरक्षित है
किस की परीक्षा है कौन परीक्षित है
इंद्रपप्रस्थ है, न्याय परस्त है
यज्ञ ध्वस्त हैं, विश्वास विध्वस्त है
भीष्म शर्मशार हैं ,प्रण की पुकार है
जीवित नेत्र हैं , धिक्कार है धिक्कार है।
मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
I wish..
हार्दिक बधाई आदरणीय अमिता तिवारी जी!आपकी इस रचना ने रोंगटे खडे कर दिये मगर उस घटना से हमारे देश का कानून नहीं जागा!सरकार भी नहीं जागी!कितनी विचित्र बात है!बेहतरीन प्रस्तुति!
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