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उनकी क्या बात करूँ,
मैं अपनी ही सुनाता हूँ।
भाव-भंगिमा थी क्या उनकी,
मैं अपनी पर इतराता हूँ।
पसीना आए या खून बहे,
पर उनका क्या जाता है?
लूट लिया उन्होंने मुझको,
मुझे लुटना भी भाता है।
मीठी-मीठी वाणी से,
लूट हाड-मांस का सार लिया।
अपने पराये हो गए,
बिगाड सारा परिवार दिया।
धन-दौलत की क्या बात करूँ,
वो तो उनके पास रही।
क्या लेना मुझको था उससे,
वो गले में पडके खाक रही।
है अच्छाई और बुराई क्या,
मैं समझ नहीं पाता हूँ।
अपनी अपने पास रखो,
मैं अपनों से घबराता हूँ।
अपने ही हैं जिन्होंने मुझको,
अपना कहके ही लूटा है।
क्या बात करूँ उन अपनों की,
ये अपनापन तो झूठा है।
अपने ही हैं जो अपना कहकर,
अपनों की कमाई खाते हैं।
मुंह में राम-बगल में छुरी,
आस्तीन के सांप हो जाते हैं।
बुरे हैं तो भी अपने हैं,
मैं उनकी ही गाथा गाता हूँ।
अपने तो अपने होते हैं,
मैं उनको शीश नवाता हूँ।


मौलिक व अप्रकाशित

सुरेश कुमार कल्याण

Views: 359

Comment

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Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on April 11, 2016 at 8:00pm
धन्यवाद सतविंदर कुमार जी
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on April 11, 2016 at 7:27pm
वाह आदरणीय।हार्दिक बधाई स्वीकारें

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